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"ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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01:32, 21 मई 2009 का अवतरण
ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयाँ अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़दाँ अपना
मय वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ए-ग़ैर में यारब
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहाँ अपना
मंज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते
अर्श से इधर होता काश के मकाँ अपना
दे वो जिस क़दर ज़िल्लत हम हँसी में टालेंगे
बारे आश्ना निकला उनका पासबाँ अपना
दर्द-ए-दिल लिखूँ कब तक? ज़ाऊँ उन को दिखला दूँ
उँगलियाँ फ़िगार अपनी ख़ामाख़ूँचकाँ अपना
घिसते-घिसते मिट जाता आप ने अबस बदला
नंग-ए-सज्दा से मेरे संग-ए-आस्ताँ अपना
ता करे न ग़माज़ी, कर लिया है दुश्मन को
दोस्त की शिकायत में हम ने हम-ज़बाँ अपना
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यक्ता थे
बेसबब हुआ "ग़ालिब" दुश्मन आस्माँ अपना