"ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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ना वो सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है <br><br> | ना वो सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है <br><br> | ||
01:38, 21 मई 2009 का अवतरण
ज़ुल्मतकदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
इक शम्मा है दलील-ए-सहर, सो ख़मोश है
ना मुज़्दा-ए-विसाल न नज़्ज़ारा-ए-जमाल
मुद्दत हुई कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश है
मै ने किया है हुस्न-ए-ख़ुदआर को बेहिजाब
अए शौक़ याँ इजाज़त-ए-तस्लीम-ए-होश है
गौहर को इक्द-ए-गर्दन-ए-ख़ुबाँ में देखना
क्या औज पर सितारा-ए-गौहरफ़रोश है
दीदार, वादा, हौसला, साक़ी, निगाह-ए-मस्त
बज़्म-ए-ख़याल मैकदा-ए-बेख़रोश है
अए ताज़ा वारिदन-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल
ज़िंहार गर तुम्हें हवस-ए-न-ओ-नोश है
देखो मुझे जो दीदा-ए-इबरतनिगाह हो
मेरी सुनो जो गोश-ए-नसीहतनियोश है
साक़ी बजल्वा दुश्मन-ए-इमाँ-ओ-आगही
मुतरिब बनग़्मा रहज़न-ए-तम्कीन-ओ-होश है
या शब को देखते थे कि हर गोशा-ए-बिसात
दामान-ए-बाग़बाँ-ओ-कफ़-ए-गुलफ़रोश है
लुत्फ़-ए-ख़ीराम-ए-साक़ी-ओ-ज़ौक़-ए-सदा-ए-चंग
ये जन्नत-ए-निगाह वो फ़िर्दौस-ए-गोश है
य सुभ दम जो देखिये आकर तो बज़्म में
ना वो सुरूर-ओ-सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश है
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की जली हुई
इक शम्मा रह गई है सो वो भी ख़मोश है
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामी ख़याल में
"ग़ालिब", सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है