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"फिर इस अन्दाज़ से बहार आई / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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फिर इस अंदाज़ से बहार आई <br>
 
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00:10, 23 मई 2009 का अवतरण

फिर इस अंदाज़ से बहार आई
के हुए मेहर-ओ-माह तमाशाई

देखो ऐ सकिनान-ए-खित्ता-ए-ख़ाक
इस को कहते हैं आलम-आराई

के ज़मीं हो गई है सर ता सर
रूकश-ए-सतहे चर्ख़े मिनाई

सब्ज़े को जब कहीं जगह न मिली
बन गया रू-ए-आब पर काई

सब्ज़-ओ-गुल के देखने के लिये
चश्म-ए-नर्गिस को दी है बिनाई

है हवा में शराब की तासीर
बदानोशी है बाद पैमाई

क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी "ग़ालिब"
शाह-ए-दीदार ने शिफ़ा पाई