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"मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर
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हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिंदा <br> | हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिंदा <br> |
15:47, 23 मई 2009 का अवतरण
मज़े जहाँ के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाय ख़ून-ए-जिगर, सो जिगर में ख़ाक नहीं
मगर ग़ुबार हुए पर हवा उड़ा ले जाये
वगर्ना ताब-ओ-तवाँ बाल-ओ-पर में ख़ाक नहीं
ये किस बहीश्तशमाइल की आमद-आमद है
के ग़ैर जल्वा-ए-गुल राहगुज़र में ख़ाक नहीं
भला उसे न सही, कुछ मुझी को रहम आता
असर मेरे नफ़स-ए-बेअसर में ख़ाक नहीं
ख़याल-ए-जल्वा-ए-गुल से ख़राब है मयकश
शराबख़ाने के दीवार-ओ-दर में ख़ाक नहीं
हुआ हूँ इश्क़ की ग़ारतगरी से शर्मिंदा
सिवाय हसरत-ए-तामीर घर में ख़ाक नहीं
हमारे शेर हैं अब सिर्फ़ दिल्लगी के "असद"
खुला कि फ़ायेदा अर्ज़-ए-हुनर में ख़ाक नहीं