भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं / शहरयार" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
 
निकली है जुगनुओं की भटकती सिपाह फिर<br><br>  
 
निकली है जुगनुओं की भटकती सिपाह फिर<br><br>  
  
होंठों पे आ रहा है कोई नाम बार बार <br>
+
होंठों पे आ रहा है कोई नाम बार-बार <br>
 
सन्नाटों की तिलिस्म को तोड़ेगी आह फिर <br><br>
 
सन्नाटों की तिलिस्म को तोड़ेगी आह फिर <br><br>
  

00:02, 30 मई 2009 के समय का अवतरण

हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं है सियाह फिर
निकली है जुगनुओं की भटकती सिपाह फिर

होंठों पे आ रहा है कोई नाम बार-बार
सन्नाटों की तिलिस्म को तोड़ेगी आह फिर

पिछले सफ़र की गर्द को दामन से झाड़ दो
आवाज़ दे रही है कोई सूनी राह फिर

बेरंग आसमाँ को देखेगी कब तलक
मंज़र नया तलाश करेगी निगाह फिर

ढीली हुई गिरफ़्त जुनूँ की के जल उठा
ताक़-ए-हवस में कोई चराग़-ए-गुनाह फिर