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"दुरिहै क्यों भूखन बसन दुति जोबन की / केशव." के अवतरणों में अंतर
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16:27, 16 जून 2009 का अवतरण
दुरिहै क्यों भूखन बसन दुति जोबन की ,
देहहु की जोति होति द्यौस ऎसी राति है ।
नाहक सुबास लागे ह्वै कैसी केशव ,
सुभावती की बास भौंर भीर फारे खाति है ।
देखि तेरी सूरति की मूरति बिसूरति हूँ ,
लालन के दृग देखिबे को ललचाति है ।
चालिहै क्यों चँदमुखी कुचन के भार लए ,
कचन के भार ही लचकि लँक जाति है ।
केशव का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।