भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आज सड़कों पर / दुष्यंत कुमार" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(The book "साये में धूप" has "घर" instead of "पर") |
|||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | [[Category: | + | |रचनाकार=दुष्यंत कुमार |
− | + | |संग्रह=साये में धूप / दुष्यन्त कुमार | |
− | + | }} | |
+ | [[Category:ग़ज़ल]] | ||
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,<br> | आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,<br> |
17:33, 25 जुलाई 2008 के समय का अवतरण
आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख।
एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख।
अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,
यह हक़ीक़त देख लेकिन खौफ़ के मारे न देख।
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ उन हाथों में तलवारें न देख।
ये धुंधलका है नज़र का तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देख।
राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख अंगारे न देख।