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"पद / भारतेंदु हरिश्चंद्र" के अवतरणों में अंतर

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तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी !
 
  
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तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी !
 
इन चोरन मेरो सरबस लूट्यौ मन लीनो जोरा जोरी !
 
इन चोरन मेरो सरबस लूट्यौ मन लीनो जोरा जोरी !
 
 
छोड़ि देई कि बंद चोलिया, पकरैं चोर हम अपनो री !
 
छोड़ि देई कि बंद चोलिया, पकरैं चोर हम अपनो री !
 
 
"हरीचन्द" इन दोउन मेरी, नाहक कीनी चितचोरी !
 
"हरीचन्द" इन दोउन मेरी, नाहक कीनी चितचोरी !
 
 
तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी !!
 
तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी !!
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हमहु सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ।
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हित जामै हमारो बनै सो करौ, सखियाँ तुम मेरी कहावती हौ॥
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'हरिचंद जु' जामै न लाभ कछु, हमै बातनि क्यों बहरावति हौ।
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सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥
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ऊधो जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।
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कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक श्याम की प्रीति प्रतीति खरी है॥
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ये ब्रजबाला सबै इक सी, 'हरिचंद जु' मण्डलि ही बिगरी है।
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एक जो होय तो ज्ञान सिखाइये, कूप ही में इहाँ भाँग परी है॥
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मन की कासों पीर सुनाऊं।
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बकनो बृथा, और पत खोनी, सबै चबाई गाऊं॥
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कठिन दरद कोऊ नहिं हरिहै, धरिहै उलटो नाऊं॥
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यह तौ जो जानै सोइ जानै, क्यों करि प्रगट जनाऊं॥
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रोम-रोम प्रति नैन स्रवन मन, केहिं धुनि रूप लखाऊं।
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बिना सुजान सिरोमणि री, किहिं हियरो काढि दिखाऊं॥
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मरिमनि सखिन बियोग दुखिन क्यों, कहि निज दसा रोवाऊं।
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'हरीचंद पिय मिलैं तो पग परि, गहि पटुका समझाऊं॥
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हम सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ
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हित जामैं हमारो बनै सो करौ, सखियां तुम मेरी कहावति हौ॥
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'हरिचंद जू जामै न लाभ कछू, हमैं बातनि क्यों बहरावति हौ।
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सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥
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क्यों इन कोमल गोल कपोलन, देखि गुलाब को फूल लजायो॥
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त्यों 'हरिचंद जू पंकज के दल, सो सुकुमार सबै अंग भायो॥
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अमृत से जुग ओठ लसैं, नव पल्लव सो कर क्यों है सुहायो।
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पाहप सो मन हो तौ सबै अंग, कोमल क्यों करतार बनायो॥
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आजु लौं जो न मिले तौ कहा, हम तो तुम्हरे सब भांति कहावैं।
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मेरो उराहनो है कछु नाहिं, सबै फल आपुने भाग को पावैं॥
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जो 'हरिचनद भई सो भई, अब प्रान चले चहैं तासों सुनावैं।
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प्यारे जू है जग की यह रीति, बिदा के समै सब कंठ लगावैं॥
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18:18, 29 जुलाई 2009 के समय का अवतरण


1


तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी !
इन चोरन मेरो सरबस लूट्यौ मन लीनो जोरा जोरी !
छोड़ि देई कि बंद चोलिया, पकरैं चोर हम अपनो री !
"हरीचन्द" इन दोउन मेरी, नाहक कीनी चितचोरी !
तेरी अँगिया में चोर बसैं गोरी !!


2


हमहु सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ।
हित जामै हमारो बनै सो करौ, सखियाँ तुम मेरी कहावती हौ॥
'हरिचंद जु' जामै न लाभ कछु, हमै बातनि क्यों बहरावति हौ।
सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥


3


ऊधो जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।
कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक श्याम की प्रीति प्रतीति खरी है॥
ये ब्रजबाला सबै इक सी, 'हरिचंद जु' मण्डलि ही बिगरी है।
एक जो होय तो ज्ञान सिखाइये, कूप ही में इहाँ भाँग परी है॥

4


मन की कासों पीर सुनाऊं।
बकनो बृथा, और पत खोनी, सबै चबाई गाऊं॥
कठिन दरद कोऊ नहिं हरिहै, धरिहै उलटो नाऊं॥
यह तौ जो जानै सोइ जानै, क्यों करि प्रगट जनाऊं॥
रोम-रोम प्रति नैन स्रवन मन, केहिं धुनि रूप लखाऊं।
बिना सुजान सिरोमणि री, किहिं हियरो काढि दिखाऊं॥
मरिमनि सखिन बियोग दुखिन क्यों, कहि निज दसा रोवाऊं।
'हरीचंद पिय मिलैं तो पग परि, गहि पटुका समझाऊं॥

6


हम सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ
हित जामैं हमारो बनै सो करौ, सखियां तुम मेरी कहावति हौ॥
'हरिचंद जू जामै न लाभ कछू, हमैं बातनि क्यों बहरावति हौ।
सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥
क्यों इन कोमल गोल कपोलन, देखि गुलाब को फूल लजायो॥
त्यों 'हरिचंद जू पंकज के दल, सो सुकुमार सबै अंग भायो॥

7

अमृत से जुग ओठ लसैं, नव पल्लव सो कर क्यों है सुहायो।
पाहप सो मन हो तौ सबै अंग, कोमल क्यों करतार बनायो॥
आजु लौं जो न मिले तौ कहा, हम तो तुम्हरे सब भांति कहावैं।
मेरो उराहनो है कछु नाहिं, सबै फल आपुने भाग को पावैं॥
जो 'हरिचनद भई सो भई, अब प्रान चले चहैं तासों सुनावैं।
प्यारे जू है जग की यह रीति, बिदा के समै सब कंठ लगावैं॥