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"वे सब के सब अंतर्यामी / प्रेम भारद्वाज" के अवतरणों में अंतर

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(नया पृष्ठ: <poem> वे सब के सब अन्तर्यामी हम ठहरे मूरख खल कामी आँच न आए गुरूजनों प...)
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23:22, 30 जुलाई 2009 का अवतरण

वे सब के सब अन्तर्यामी
हम ठहरे मूरख खल कामी

आँच न आए गुरूजनों पर
चेलों की तो क्या बदनामी

कितना फिर से बन कर साधू
मन भीतर से चोर हरामी

धरती पर चलने वालों की
कहाँ सुनेंगे ये नभगामी

समय पड़े तो घर-घर बहनें
भौजी,मौसी,चाची मामी

ऐश करा देगा सबकी है
मुजरिम हवालत में नामी

सब्र सादगी काम न आएं
मिले प्रेम से जब नाकामी