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"पद / गोरखनाथ" के अवतरणों में अंतर

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ऊँ सबदहि ताला सबदहि कूची सबदहि सबद भया उजियाला।
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काँटा सेती काँटा षूटै कूँची सेती ताला।
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सिध मिलै तो साधिक निपजै, जब घटि होय उजाला॥
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अलष पुरुष मेरी दिष्टि समाना, सोसा गया अपूठा।
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जबलग पुरुषा तन मन नहीं निपजै, कथै बदै सब झूठा॥
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सहज सुभाव मेरी तृष्ना फीटी, सींगी नाद संगि मेला।
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यंम्रत पिया विषै रस टारया गुर गारडौं अकेला॥
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सरप मरै बाँबी उठि नाचै, कर बिनु डैरूँ बाजै।
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कहै 'नाथ जौ यहि बिधि जीतै, पिंड पडै तो सतगुर लाजै॥

19:47, 31 जुलाई 2009 का अवतरण

रहता हमारै गुरु बोलेये, हम रहता का चेला ।

मन मानै तौ संगि फिरै, निंहतर फिरै अकेला ।।

अवधू ऐसा ग्यांन बिचारी तामैं झिलिमिलि जोति उजाली ।

जहाँ जोग तहाँ रोग न व्यापै, ऐसा परषि गुर करनां ।

तन मन सूं जे परचा नांही, तौ काहे को पचि मरनां ।।

काल न मिट्या जंजाल न छुट्या, तप करि हुवा न सूरा ।

कुल का नास करै मति कोई, जै गुर मिलै न पूरा ।।

सप्त धात्त का काया पींजरा, ता महिं जुगति बिन सूवा ।

सतगुर मिलै तो ऊबरै बाबू, नहीं तौ परलै हूवा ।

कंद्रप रूप काया का मंडण, अँबिरथा कांई उलींचौ ।

गोरष कहैं सुणौं रे भौंदू, अंरड अँमीं कत सींचौ ।

ना कोई बारू , ना कोई बँदर, चेत मछँदर,

आप तरावो आप समँदर, चेत मछँदर

निरखे तु वो तो है निँदर, चेत मछँदर चेत !

धूनी धाखे है अँदर, चेत मछँदर

कामरूपिणी देखे दुनिया देखे रूप अपारा

सुपना जग लागे अति प्यारा चेत मछँदर !

सूने शिखर के आगे आगे शिखर आपनो,

छोड छटकते काल कँदर , चेत मछँदर !

साँस अरु उसाँस चला कर देखो आगे,

अहालक आया जगँदर, चेत मछँदर !

देख दीखावा, सब है, धूर की ढेरी,

ढलता सूरज, ढलता चँदा, चेत मछँदर !

चढो चाखडी, पवन पाँवडी,जय गिरनारी,

क्या है मेरु, क्या है मँदर, चेत मछँदर !

गोरख आया !

आँगन आँगन अलख जगाया, गोरख आया!

जागो हे जननी के जाये, गोरख आया !

भीतर आके धूम मचाया, गोरख आया !

आदशबाद मृदँग बजाया, गोरख आया !

जटाजूट जागी झटकाया,गोरख आया !

नजर सधी अरु, बिखरी माया,गोरख आया !

नाभि कँवरकी खुली पाँखुरी, धीरे, धीरे,

भोर भई, भैरव सूर गाया, गोरख आया !

एक घरी मेँ रुकी साँस ते अटक्य चरखो,

करम धरमकी सिमटी काया,गोरख आया !

गगन घटामेँ एक कडाको,बिजुरी हुलसी,

घिर आयी गिरनारी छाया,गोरख आया !

लगी लै, लैलीन हुए, सब खो गई खलकत,

बिन माँगे मुक्ताफल पाया, गोरख आया !


"बिनु गुरु पन्थ न पाईए भूलै से जो भेँट,

जोगी सिध्ध होइ तब, जब गोरख से हौँ भेँट!"

(-- पद्मावत )



ऊँ सबदहि ताला सबदहि कूची सबदहि सबद भया उजियाला।

काँटा सेती काँटा षूटै कूँची सेती ताला। सिध मिलै तो साधिक निपजै, जब घटि होय उजाला॥

अलष पुरुष मेरी दिष्टि समाना, सोसा गया अपूठा। जबलग पुरुषा तन मन नहीं निपजै, कथै बदै सब झूठा॥

सहज सुभाव मेरी तृष्ना फीटी, सींगी नाद संगि मेला। यंम्रत पिया विषै रस टारया गुर गारडौं अकेला॥

सरप मरै बाँबी उठि नाचै, कर बिनु डैरूँ बाजै।

कहै 'नाथ जौ यहि बिधि जीतै, पिंड पडै तो सतगुर लाजै॥