"इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला / गुलज़ार" के अवतरणों में अंतर
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अलग़ोज़ा की वादी में<BR> | अलग़ोज़ा की वादी में<BR> | ||
भेड़ों की गईं जानें<BR> | भेड़ों की गईं जानें<BR> | ||
संवाद : कुछ वक़्त नहीं गुज़रा नानी ने बताया था<BR> | संवाद : कुछ वक़्त नहीं गुज़रा नानी ने बताया था<BR> | ||
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मरते हैं हज़ारों में !<BR> | मरते हैं हज़ारों में !<BR> | ||
इन बूढ़े पहाड़ों पर...<BR> | इन बूढ़े पहाड़ों पर...<BR> | ||
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संवाद : चुपचाप अँधेरे में अक्सर उस जंगल में<BR> | संवाद : चुपचाप अँधेरे में अक्सर उस जंगल में<BR> | ||
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दरिया पे बारिश में<BR> | दरिया पे बारिश में<BR> | ||
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सब तोड़ के गिराता है<BR> | सब तोड़ के गिराता है<BR> | ||
संगलाख़ चट्टानों से <BR> | संगलाख़ चट्टानों से <BR> |
15:39, 10 अगस्त 2009 का अवतरण
इन बूढ़े पहाड़ों पर, कुछ भी तो नहीं बदला
सदियों से गिरी बर्फ़ें
और उनपे बरसती हैं
हर साल नई बर्फ़ें
इन बूढ़े पहाड़ों पर....
घर लगते हैं क़ब्रों से
ख़ामोश सफ़ेदी में
कुतबे से दरख़्तों के
ना आब था ना दानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गईं जानें
संवाद : कुछ वक़्त नहीं गुज़रा नानी ने बताया था
सरसब्ज़ ढलानों पर बस्ती गड़रियों की
और भेड़ों की रेवड़ थे
गाना :
ऊँचे कोहसारों के
गिरते हुए दामन में
जंगल हैं चनारों के
सब लाल से रहते हैं
जब धूप चमकती है
कुछ और दहकते हैं
हर साल चनारों में
इक आग के लगने से
मरते हैं हज़ारों में !
इन बूढ़े पहाड़ों पर...
संवाद : चुपचाप अँधेरे में अक्सर उस जंगल में
इक भेड़िया आता था
ले जाता था रेवड़ से
इक भेड़ उठा कर वो
और सुबह को जंगल में
बस खाल पड़ी मिलती।
गाना : हर साल उमड़ता है
दरिया पे बारिश में
इक दौरा-सा पड़ता है
सब तोड़ के गिराता है
संगलाख़ चट्टानों से
जा सर टकराता है
तारीख़ का कहना है
रहना चट्टानों को
दरियाओं को बहना है
अब की तुग़यानी में
कुछ डूब गए गाँव
कुछ बह गए पानी में
चढ़ती रही कुर्बानें
अलग़ोज़ा की वादी में
भेड़ों की गई जानें
संवाद : फिर सारे गड़रियों ने
उस भेड़िए को ढूँढ़ा
और मार के लौट आए
उस रात इक जश्न हुआ
अब सुबह को जंगल में
दो और मिली खालें
गाना : नानी की अगर माने
तो भेड़िया ज़िन्दा है
जाएँगी अभी जानें
इन बूढ़े पहाड़ों पर कुछ भी तो नहीं बदला...