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हम व्यर्थ ही व्याकुल हो उठते हैं, | हम व्यर्थ ही व्याकुल हो उठते हैं, |
00:28, 22 अगस्त 2009 के समय का अवतरण
वास्तव में
हम व्यर्थ ही व्याकुल हो उठते हैं,
औरों के लिए,
यह जानते हुए भी कि,
सबके अपने-अपने दायरे हैं,
और्सब के अपने-अपने घाट,
किंतु फिर भीम
(पता नहीं क्यों)
हर बाट छोड़ कर
हम उसी घाट पर,
जा सकते हैं बार-बार
जहां क्षण भर की तृप्ति के बदले
अनंतकाल के लिए
सौगात में मिलती है हमें
सैंकड़ों मन धधकती हुई आग।