"सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अहमद फ़राज़ }} Category:गज़ल सुना है लोग उसे आँख भर के देखते...) |
|||
पंक्ति 11: | पंक्ति 11: | ||
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं <br><br> | सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं <br><br> | ||
− | सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए- | + | सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी <br> |
सो हम भी उसकी गली से गुज़र कर देखते हैं <br><br> | सो हम भी उसकी गली से गुज़र कर देखते हैं <br><br> | ||
पंक्ति 33: | पंक्ति 33: | ||
सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है <br> | सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है <br> | ||
− | सो उसको सुरमाफ़रोश | + | सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं <br><br> |
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं <br> | सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं <br> | ||
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं <br><br> | सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं <br><br> | ||
− | सुना है आईना तमसाल है जबीं | + | सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी <br> |
− | जो सादा दिल हैं बन सँवर के देखते हैं <br><br> | + | जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं <br><br> |
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में <br> | सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में <br> | ||
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं <br><br> | मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं <br><br> | ||
− | सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए- | + | सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में <br> |
− | पलंग | + | पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं <br><br> |
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं <br> | सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं <br> | ||
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं <br><br> | के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं <br><br> | ||
− | वो | + | वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं <br> |
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं <br><br> | के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं <br><br> | ||
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का <br> | बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का <br> | ||
− | सो | + | सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं <br><br> |
सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त <br> | सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त <br> |
05:33, 25 अगस्त 2009 का अवतरण
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आप को बरबाद करके देखते हैं
सुना है दर्द की गाहक है चश्म-ए-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र कर देखते हैं
सुना है उसको भी है शेर-ओ-शायरी से शगफ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं
सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बाम-ए-फ़लक से उतर कर देखते हैं
सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उस को हिरन दश्त भर के देखते हैं
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुग्नू ठहर के देखते हैं
सुना है रात से बढ़ कर हैं काकुलें उसकी
सुना है शाम को साये गुज़र के देखते हैं
सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं
सुना है उसके लबों से गुलाब जलते हैं
सो हम बहार पर इल्ज़ाम धर के देखते हैं
सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन सँवर के देखते हैं
सुना है जब से हमाइल हैं उसकी गर्दन में
मिज़ाज और ही लाल-ओ-गौहर के देखते हैं
सुना है चश्म-ए-तसव्वुर से दश्त-ए-इम्काँ में
पलंग ज़ाविए उसकी कमर के देखते हैं
सुना है उसके बदन के तराश ऐसे हैं
के फूल अपनी क़बायेँ कतर के देखते हैं
वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं
बस एक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रहर्वान-ए-तमन्ना भी डर के देखते हैं
सुना है उसके शबिस्तान से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीन उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं
रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं
किसे नसीब के बे-पैरहन उसे देखे
कभी-कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं
कहानियाँ हीं सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है ताबीर कर के देखते हैं
अब उसके शहर में ठहरें कि कूच कर जायेँ
"फ़राज़" आओ सितारे सफ़र के देखते हैं