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21:54, 1 सितम्बर 2009 का अवतरण
बे-ठिकाने है दिले-ग़मगीं ठिकाने की कहो
शमे-हिज्राँ, दोस्तो, कुछ उसके आने की कहो।
हाँ न पूछो इक गिरफ़्तारे-कफ़स की ज़िन्दगी
हमसफ़ीराने-चमन१,कुछ आसियाने की कहो
उड़ गया है मंजिले-दुशवार से ग़म का समन्द२
गेसू-ए-पुरपेचो-ख़म के ताज़याने३ की कहो।
बात बनती और बातों से नज़र आती नहीं
उस निगाहे-नाज़ के बातें बनाने की कहो।
दास्ताँ वो थी जिसे दिल बुझते-बुझते कह गया
शम्ए - बज़्मे - ज़िन्दगी के झिलमिलाने की कहो।
कुछ दिले-मरहूम४ की बातें करो, ऐ अहले-ग़म
जिससे वीराने थे आबाद, उस दिवाने की कहो।
दास्ताने - ज़िन्दगी भी किस तरह दिलचस्प है
जो अज़ल५ से छिड़ गया है उस फ़साने की कहो।
ये फ़ुसूने - नीमशब, ये ख़ाब-सामाँ ख़ामुशी
सामरी फ़न आँख के जादू जगाने की कहो।
कोई क्या खायेगा यूँ सच्ची क़सम, झूठी क़सम
उस निगाहे-नाज़ के सौगन्द खाने की कहो।
शाम से की गोश-बरआवाज़६ है बज़्मे-सुख़न
कुछ फ़िराक़ अपनी सुनाओ कुछ जमाने की कहो।
शब्दार्थ
१- चमन के साथी, २- घोड़ा, ३- कोड़ा, ४- मरा हुआ दिल, ५- सृष्टि, ६- आवाज़ पर कान लगाये।