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"मेरी दास्ताने-ग़म को वो ग़लत समझ रहे हैं / साक़िब लखनवी" के अवतरणों में अंतर
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23:22, 9 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
मेरी दास्ताने-ग़म को, वो ग़लत समझ रहे हैं।
कुछ उन्हीं की बात बनती अगर एतबार होता॥
दिले पारा-पारा तुझ को कोई यूँ तो दफ़्न करता।
वो जिधर निगाह करते उधर इक मज़ार होता॥