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"नाज़ो-अदा की चोटें सहना तो और शै है / साक़िब लखनवी" के अवतरणों में अंतर

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23:25, 9 सितम्बर 2009 का अवतरण


नाज़ो-अदा की चोटें, सहना तो और शै है।
ज़ख्मों को देख लेता कोई, तो देखता मैं॥

बर्क़े जमाले-वहदत! तू ही मुझे बत दे।
शोला तो दूर भड़का, फिर किसलिए जला मैं?