भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"होकर अयाँ वो ख़ुद को छुपाये हुए-से हैं / फ़िराक़ गोरखपुरी" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
DeepakAgrawal (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फ़िराक़ गोरखपुरी }} <poem> होकर अयाँ वो ख़ुद को छुप...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
13:25, 13 सितम्बर 2009 का अवतरण
होकर अयाँ वो ख़ुद को छुपाये हुए-से हैं
अहले-नज़र ये चोट भी खाये हुए-से हैं
वो तूर हो कि हश्रे-दिल अफ़्सुर्दगाने-इश्क1
हर अंजुमन में आग
लगाये-हुए-से हैं
सुब्हे-अज़ल को यूँ ही ज़रा मिल गयी थी आंख
वो आज तक निगाह
चुराये-हुए-से हैं
हम बदगु़माने-इश्क तेरी बज़्मे - नाज से
जाकर भी तेरे सामने
आये-हुए-से हैं
ये क़ुर्बो-बोद2 भी हैं सरासर फ़रेबे-हुस्ने
वो आके भी फ़िराक़ न आए-हुए-से हैं
1- प्रेम में दुखी लोग, 2- सामीप्य एवं दूरी