"जागो फिर एक बार / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
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− | + | जागो फिर एक बार!<br> | |
− | जागो फिर एक बार! | + | प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें<br> |
− | प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें | + | अरुण-पंख तरुण-किरण<br> |
− | अरुण-पंख तरुण-किरण | + | खड़ी खोलती है द्वार-<br> |
− | खड़ी खोलती है द्वार- | + | जागो फिर एक बार!<br><br> |
− | जागो फिर एक बार! | + | |
− | आँखे अलियों-सी | + | आँखे अलियों-सी<br> |
− | किस मधु की गलियों में फँसी, | + | किस मधु की गलियों में फँसी,<br> |
− | बन्द कर पाँखें | + | बन्द कर पाँखें<br> |
− | पी रही हैं मधु मौन | + | पी रही हैं मधु मौन<br> |
− | अथवा सोयी कमल-कोरकों में?- | + | अथवा सोयी कमल-कोरकों में?-<br> |
− | बन्द हो रहा गुंजार- | + | बन्द हो रहा गुंजार-<br> |
− | जागो फिर एक बार! | + | जागो फिर एक बार!<br><br> |
− | अस्ताचल चले रवि, | + | अस्ताचल चले रवि,<br> |
− | शशि-छवि विभावरी में | + | शशि-छवि विभावरी में<br> |
− | चित्रित हुई है देख | + | चित्रित हुई है देख<br> |
− | यामिनीगन्धा जगी, | + | यामिनीगन्धा जगी,<br> |
− | एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय, | + | एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,<br> |
− | आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी | + | आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी<br> |
− | घेर रहा चन्द्र को चाव से | + | घेर रहा चन्द्र को चाव से<br> |
− | शिशिर-भार-व्याकुल कुल | + | शिशिर-भार-व्याकुल कुल<br> |
− | खुले फूल झूके हुए, | + | खुले फूल झूके हुए,<br> |
− | आया कलियों में मधुर | + | आया कलियों में मधुर<br> |
− | मद-उर-यौवन उभार- | + | मद-उर-यौवन उभार-<br> |
− | जागो फिर एक बार! | + | जागो फिर एक बार!<br><br> |
− | पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे, | + | पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,<br> |
− | सेज पर विरह-विदग्धा वधू | + | सेज पर विरह-विदग्धा वधू<br> |
− | याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की | + | याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की<br> |
− | मूँद रही पलकें चारु | + | मूँद रही पलकें चारु<br> |
− | नयन जल ढल गये, | + | नयन जल ढल गये,<br> |
− | लघुतर कर व्यथा-भार | + | लघुतर कर व्यथा-भार<br> |
− | जागो फिर एक बार! | + | जागो फिर एक बार!<br><br> |
− | सहृदय समीर जैसे | + | सहृदय समीर जैसे<br> |
− | पोछों प्रिय, नयन-नीर | + | पोछों प्रिय, नयन-नीर<br> |
− | शयन-शिथिल बाहें | + | शयन-शिथिल बाहें<br> |
− | भर स्वप्निल आवेश में, | + | भर स्वप्निल आवेश में,<br> |
− | आतुर उर वसन-मुक्त कर दो, | + | आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,<br> |
− | सब सुप्ति सुखोन्माद हो, | + | सब सुप्ति सुखोन्माद हो,<br> |
− | छूट-छूट अलस | + | छूट-छूट अलस<br> |
− | फैल जाने दो पीठ पर | + | फैल जाने दो पीठ पर<br> |
− | कल्पना से कोमन | + | कल्पना से कोमन<br> |
− | ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ। | + | ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ।<br> |
− | तन-मन थक जायें, | + | तन-मन थक जायें,<br> |
− | मृदु सरभि-सी समीर में | + | मृदु सरभि-सी समीर में<br> |
− | बुद्धि बुद्धि में हो लीन | + | बुद्धि बुद्धि में हो लीन<br> |
− | मन में मन, जी जी में, | + | मन में मन, जी जी में,<br> |
− | एक अनुभव बहता रहे | + | एक अनुभव बहता रहे<br> |
− | उभय आत्माओं मे, | + | उभय आत्माओं मे,<br> |
− | कब से मैं रही पुकार | + | कब से मैं रही पुकार<br> |
− | जागो फिर एक बार! | + | जागो फिर एक बार!<br><br> |
− | उगे अरुणाचल में रवि | + | उगे अरुणाचल में रवि<br> |
− | आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में, | + | आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में,<br> |
− | क्षण-क्षण में परिवर्तित | + | क्षण-क्षण में परिवर्तित<br> |
− | होते रहे प्रृकति-पट, | + | होते रहे प्रृकति-पट,<br> |
− | गया दिन, आयी रात, | + | गया दिन, आयी रात,<br> |
− | गयी रात, खुला दिन | + | गयी रात, खुला दिन<br> |
− | ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास, | + | ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास,<br> |
− | वर्ष कितने ही हजार- | + | वर्ष कितने ही हजार-<br> |
− | जागो फिर एक बार! | + | जागो फिर एक बार!<br><br> |
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22:56, 28 अक्टूबर 2006 का अवतरण
लेखक: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
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जागो फिर एक बार!
प्यार जगाते हुए हारे सब तारे तुम्हें
अरुण-पंख तरुण-किरण
खड़ी खोलती है द्वार-
जागो फिर एक बार!
आँखे अलियों-सी
किस मधु की गलियों में फँसी,
बन्द कर पाँखें
पी रही हैं मधु मौन
अथवा सोयी कमल-कोरकों में?-
बन्द हो रहा गुंजार-
जागो फिर एक बार!
अस्ताचल चले रवि,
शशि-छवि विभावरी में
चित्रित हुई है देख
यामिनीगन्धा जगी,
एकटक चकोर-कोर दर्शन-प्रिय,
आशाओं भरी मौन भाषा बहु भावमयी
घेर रहा चन्द्र को चाव से
शिशिर-भार-व्याकुल कुल
खुले फूल झूके हुए,
आया कलियों में मधुर
मद-उर-यौवन उभार-
जागो फिर एक बार!
पिउ-रव पपीहे प्रिय बोल रहे,
सेज पर विरह-विदग्धा वधू
याद कर बीती बातें, रातें मन-मिलन की
मूँद रही पलकें चारु
नयन जल ढल गये,
लघुतर कर व्यथा-भार
जागो फिर एक बार!
सहृदय समीर जैसे
पोछों प्रिय, नयन-नीर
शयन-शिथिल बाहें
भर स्वप्निल आवेश में,
आतुर उर वसन-मुक्त कर दो,
सब सुप्ति सुखोन्माद हो,
छूट-छूट अलस
फैल जाने दो पीठ पर
कल्पना से कोमन
ऋतु-कुटिल प्रसार-कामी केश-गुच्छ।
तन-मन थक जायें,
मृदु सरभि-सी समीर में
बुद्धि बुद्धि में हो लीन
मन में मन, जी जी में,
एक अनुभव बहता रहे
उभय आत्माओं मे,
कब से मैं रही पुकार
जागो फिर एक बार!
उगे अरुणाचल में रवि
आयी भारती-रति कवि-कण्ठ में,
क्षण-क्षण में परिवर्तित
होते रहे प्रृकति-पट,
गया दिन, आयी रात,
गयी रात, खुला दिन
ऐसे ही संसार के बीते दिन, पक्ष, मास,
वर्ष कितने ही हजार-
जागो फिर एक बार!