भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग १" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) छो |
Pratishtha (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | [[Category: | + | |रचनाकार=सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" |
− | + | }} | |
− | + | [[Category:लम्बी कविता]] | |
पंक्ति 37: | पंक्ति 37: | ||
मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!<br> | मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!<br> | ||
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!<br><br> | राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!<br><br> | ||
+ | |||
+ | [[बादल राग / भाग २ / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"|अगला भाग >>]] |
09:50, 3 जनवरी 2008 का अवतरण
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर।
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित पवन में,
मन में, विजन-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव घोर-कठोर-
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष!
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको,
बहा, दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार!
उथल-पुथल कर हृदय-
मचा हलचल-
चल रे चल-
मेरे पागल बादल!
धँसता दलदल
हँसता है नद खल्-खल्
बहता, कहता कुलकुल कलकल कलकल।
देख-देख नाचता हृदय
बहने को महा विकल-बेकल,
इस मरोर से- इसी शोर से-
सघन घोर गुरु गहन रोर से
मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!
राग अमर! अम्बर में भर निज रोर!