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"गहन है यह अंधकारा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

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हुआ है लुंठन हमारा।<br><br>
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खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
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बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
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इस गगन में नहीं दिनकर;
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नही शशधर, नही तारा।
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कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
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कहाँ है श्यामल किनारा।
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प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
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याद जिससे रहे वंचित गेह की,
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खोजता फिरता न पाता हुआ,
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मेरा हृदय हारा।
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23:03, 28 अक्टूबर 2006 का अवतरण

लेखक: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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गहन है यह अंधकारा;
स्वार्थ के अवगंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।

खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर;
नही शशधर, नही तारा।

कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नही आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।

प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा।