भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"गहन है यह अंधकारा / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) छो |
|||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
गहन है यह अंधकारा;<br> | गहन है यह अंधकारा;<br> | ||
− | स्वार्थ के | + | स्वार्थ के अवगुंठनों से<br> |
हुआ है लुंठन हमारा।<br><br> | हुआ है लुंठन हमारा।<br><br> | ||
01:54, 10 मई 2007 का अवतरण
लेखक: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
गहन है यह अंधकारा;
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुंठन हमारा।
खड़ी है दीवार जड़ की घेरकर,
बोलते है लोग ज्यों मुँह फेरकर
इस गगन में नहीं दिनकर;
नही शशधर, नही तारा।
कल्पना का ही अपार समुद्र यह,
गरजता है घेरकर तनु, रुद्र यह,
कुछ नही आता समझ में
कहाँ है श्यामल किनारा।
प्रिय मुझे वह चेतना दो देह की,
याद जिससे रहे वंचित गेह की,
खोजता फिरता न पाता हुआ,
मेरा हृदय हारा।