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"स्नेह-निर्झर बह गया है / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"" के अवतरणों में अंतर

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दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,<br>
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
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पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-<br>
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::जो ढह गया है।<br><br>
  
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अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,<br>
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पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-
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बह रही है हृदय पर केवल अमा;<br>
ठाट जीवन का वही
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मै अलक्षित हूँ; यही<br>
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::कवि कह गया है।<br><br>
 
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अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
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श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा।
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बह रही है हृदय पर केवल अमा;
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मै अलक्षित हूँ; यही
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कवि कह गया है।
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23:05, 28 अक्टूबर 2006 का अवतरण

लेखक: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

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स्नेह-निर्झर बह गया है!
रेत ज्यों तन रह गया है।

आम की यह डाल जो सुखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-"

जीवन दह गया है।

दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल-
ठाट जीवन का वही

जो ढह गया है।

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही

कवि कह गया है।