भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"आग पे / माधव कौशिक" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=माधव कौशिक |संग्रह=अंगारों पर नंगे पाँव / माधव क...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
22:04, 16 सितम्बर 2009 के समय का अवतरण
आग पे किसका मकां रख के चला आया है
आदमीयद को कहां रख के चला आया है ।
पूरी बस्ती की निगाहों में हैं आंसू कितने
चांद आंखों में धुआं रख के चला आया है ।
अब तो मुजरमिल ही उसे समझेंगे दुनिया वाले
क्योंकि वो सच्चा बयां रख के चला आया है ।
रात तन्हा है मगर इतनी अकेली भी नहीं
कोई क़दमों के निशां रख के चला आया है ।
काम करता है तो करता है बड़े बेदिल से
क्या पता दिल को कहां रख के चला आया है ।