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"क्यों किसी रहबर से पूछूँ अपनी मंज़िल का पता / आरज़ू लखनवी" के अवतरणों में अंतर
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क्यों किसी रहबर से पूछूँ अपनी मंज़िल का पता।
मौजे-दरिया खु़द लगा लेती है साहिल का पता॥
राहबर रहज़न न बन जाये कहीं, इस सोच में।
चुप खड़ा हूँ भूलकर रस्ते में मंज़िल का पता॥