"आ: धरती कितना देती है / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
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− | मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे | + | {{KKCatKavita}} |
− | सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे , | + | <poem> |
− | रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी , | + | मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे |
− | और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा ! | + | सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे , |
− | पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा , | + | रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी , |
− | बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला । | + | और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा ! |
− | सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये । | + | पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा , |
+ | बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला । | ||
+ | सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये । | ||
− | मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक , | + | मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक , |
− | बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर । | + | बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर । |
− | मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे , | + | मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे , |
− | ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था । | + | ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था । |
− | अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे । | + | अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे । |
− | कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने | + | कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने |
− | ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई | + | ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई |
− | सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन । | + | सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन । |
− | औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये | + | औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये |
− | गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर | + | गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर |
− | मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की | + | मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की |
− | गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर | + | गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर |
− | बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे । | + | बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे । |
− | भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों । | + | भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों । |
− | मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को | + | मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को |
− | और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन । | + | और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन । |
− | किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे | + | किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे |
− | टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा , | + | टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा , |
− | उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से । | + | उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से । |
− | देखा आँगन के कोने मे कई नवागत | + | देखा आँगन के कोने मे कई नवागत |
− | छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है । | + | छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है । |
− | छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की; | + | छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की; |
− | या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी - | + | या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी - |
− | जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे | + | जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे |
− | पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे | + | पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे |
− | डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से । | + | डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से । |
− | निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता- | + | निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता- |
− | सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले , | + | सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले , |
− | बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे | + | बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे |
− | और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन | + | और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन |
− | मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से , | + | मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से , |
− | नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है । | + | नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है । |
− | तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे | + | तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे |
− | अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाडियाँ | + | अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाडियाँ |
− | हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे | + | हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे |
− | बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा | + | बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा |
− | और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का | + | और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का |
− | हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को | + | हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को |
− | मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है | + | मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है |
− | यह धरती कितना देती है । धरती माता | + | यह धरती कितना देती है । धरती माता |
− | कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को | + | कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को |
− | नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को | + | नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को |
− | बचपन मे , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर | + | बचपन मे , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर |
− | रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ । | + | रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ । |
− | इसमे सच्ची समता के दाने बोने है | + | इसमे सच्ची समता के दाने बोने है |
− | इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है | + | इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है |
− | इसमे मानव ममता के दाने बोने है | + | इसमे मानव ममता के दाने बोने है |
− | जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले | + | जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले |
− | मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं | + | मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं |
− | हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।< | + | हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे । |
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00:40, 13 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !
पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा ,
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला ।
सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये ।
मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक ,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर ।
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे ,
ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था ।
अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे ।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन ।
औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे ।
भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों ।
मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन ।
किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे
टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा ,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से ।
देखा आँगन के कोने मे कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी -
जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से ।
निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले ,
बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे
और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से ,
नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है ।
तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाडियाँ
हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को
मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है
यह धरती कितना देती है । धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को
नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को
बचपन मे , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर
रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ ।
इसमे सच्ची समता के दाने बोने है
इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है
इसमे मानव ममता के दाने बोने है
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले
मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।