भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"सिंघवा चमार का बेटा / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: सिंघवा चमार का बेटा - फकीरा, एक-आध साल ही स्कूल जा पाया कमाल का ढोल…)
(कोई अंतर नहीं)

16:26, 14 अक्टूबर 2009 का अवतरण

सिंघवा चमार का बेटा - फकीरा,

एक-आध साल ही स्कूल जा पाया

कमाल का ढोलक बजाता।

सोलह-सत्रह के होने के साथ ही आने लगा था -

बुलावा दूर-दूर से।

लौटा करता कमाकर कई कई सौ ,

लेकिन न देता गरीब बाप को ,

खरीद लाता बाज़ार से

बिजली की तार और तरह-तरह के बल्ब .....

एक ही झोपडे में

बिजली के कई बल्ब लगाता,

और जल जाने पर ,

न जाने किस हसरत भरी निगाहों से

निहारता घंटो-घंटे ,

अपने घर की दमकती हुई रौशनी को।


गाँव में ही नहीं ,

पूरे इलाके में प्रसिद्ध था -

फकीरा के ढोलक और बिजली का मिथक

और प्रसिद्ध था -

उसका गाढा काला रंग

और लकदक सफ़ेद

बनियान और घुटने के ऊपर की धोती

अक्सर फटा हुआ , लेकिन साफ सफ़ेद।

गाँव में एक या दो बार होने वाले नाटकों में बसते थे उसके प्राण

कोई प्रलोभन ,

उस महीने नहीं भेज पाता था

बाहर उसे ।

तो भी , नाटक मण्डली से दूर

घर में बैठा ,

इतनी आकांक्षा कि कोई बुलाने आए -उसके घर।

कहता था हर बार ,

कि आने ही वाला था ।


यही है हमारा फकीरा ,

माँ - बाप उसके निकम्मेपण से

दुखी थे जरूर ,

फिर भी ,

फकीरा की मिथकीय प्रसिद्धि से

उतनी ही चमकती थी आँखे

उनकी भी

भले ही ,

घर की रोटी जुटाने में वह मदद नहीं करता था !