"रहती थी यहाँ कुछ कविताएँ / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर
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रहती थी यहाँ कुछ कविताएँ | रहती थी यहाँ कुछ कविताएँ | ||
− | + | वैसे ही , जैसे रहती थी दादी की कहानियों में परियाँ | |
− | वैसे ही , जैसे रहती थी दादी की कहानियों में | + | पिछवाड़े वाले कुएँ में |
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और सच्चे-ईमानदार लोगों के लिए जुटाती थी सुख के सामान | और सच्चे-ईमानदार लोगों के लिए जुटाती थी सुख के सामान | ||
− | + | वही परियाँ सज़ा भी देती थी | |
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लालची और मक्कार लोगों को। | लालची और मक्कार लोगों को। | ||
− | कहानी की | + | कहानी की परियाँ |
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जिन्हें हमने कभी देखा नही | जिन्हें हमने कभी देखा नही | ||
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लेकिन महसूस किया है बहुत बार | लेकिन महसूस किया है बहुत बार | ||
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अपनी दादी के निश्छल आगोश में | अपनी दादी के निश्छल आगोश में | ||
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नासमझ कल्लू के लिए स्वादिष्ट पकवान लाती हुई | नासमझ कल्लू के लिए स्वादिष्ट पकवान लाती हुई | ||
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कल्लू की उस सूखी रोटियों के बदले । | कल्लू की उस सूखी रोटियों के बदले । | ||
उन्हीं परियों की मानिंद कविताएँ | उन्हीं परियों की मानिंद कविताएँ | ||
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हमारे मानवीय सरोकारों भूखी है बेहद | हमारे मानवीय सरोकारों भूखी है बेहद | ||
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कभी जब आप बैठेंगे सुस्ताने को | कभी जब आप बैठेंगे सुस्ताने को | ||
− | + | किसी पेड़ के नीचे या कुएँ की जगत पर | |
− | किसी पेड़ के नीचे या | + | आ जाएँगी परियाँ |
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− | आ | + | |
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कविताओं की शक्ल लिये | कविताओं की शक्ल लिये | ||
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गोया आपको न भाये उनका रूप | गोया आपको न भाये उनका रूप | ||
− | + | हो गईं हैं पीली और कमज़ोर | |
− | हो गईं हैं पीली और | + | |
− | + | ||
स्नेहिल स्पर्श के अभाव में | स्नेहिल स्पर्श के अभाव में | ||
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बिलखती रहती हैं दिन-रात, | बिलखती रहती हैं दिन-रात, | ||
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नहीं पहचानी जाती है उनकी शक्ल | नहीं पहचानी जाती है उनकी शक्ल | ||
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तभी तो चल पड़ा है कहने का रिवाज़ | तभी तो चल पड़ा है कहने का रिवाज़ | ||
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कि रहती थीं यहाँ कुछ कविताएँ | कि रहती थीं यहाँ कुछ कविताएँ | ||
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वैसे ही जैसे रहती थी जलपरियाँ दादी की कहानियों में। | वैसे ही जैसे रहती थी जलपरियाँ दादी की कहानियों में। | ||
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18:31, 14 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
रहती थी यहाँ कुछ कविताएँ
वैसे ही , जैसे रहती थी दादी की कहानियों में परियाँ
पिछवाड़े वाले कुएँ में
और सच्चे-ईमानदार लोगों के लिए जुटाती थी सुख के सामान
वही परियाँ सज़ा भी देती थी
लालची और मक्कार लोगों को।
कहानी की परियाँ
जिन्हें हमने कभी देखा नही
लेकिन महसूस किया है बहुत बार
अपनी दादी के निश्छल आगोश में
नासमझ कल्लू के लिए स्वादिष्ट पकवान लाती हुई
कल्लू की उस सूखी रोटियों के बदले ।
उन्हीं परियों की मानिंद कविताएँ
हमारे मानवीय सरोकारों भूखी है बेहद
कभी जब आप बैठेंगे सुस्ताने को
किसी पेड़ के नीचे या कुएँ की जगत पर
आ जाएँगी परियाँ
कविताओं की शक्ल लिये
गोया आपको न भाये उनका रूप
हो गईं हैं पीली और कमज़ोर
स्नेहिल स्पर्श के अभाव में
बिलखती रहती हैं दिन-रात,
नहीं पहचानी जाती है उनकी शक्ल
तभी तो चल पड़ा है कहने का रिवाज़
कि रहती थीं यहाँ कुछ कविताएँ
वैसे ही जैसे रहती थी जलपरियाँ दादी की कहानियों में।