"कुरुक्षेत्र / प्रथम सर्ग / भाग 2" के अवतरणों में अंतर
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लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,<br> | लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,<br> | ||
जीवितों के कान पर मरता हुआ,<br> | जीवितों के कान पर मरता हुआ,<br> | ||
− | और उन पर | + | और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ-<br> |
'देख लो, बाहर महा सुनसान है<br> | 'देख लो, बाहर महा सुनसान है<br> | ||
सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'<br><br> | सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'<br><br> | ||
− | हर्ष के स्वर में छिपा जो | + | हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है,<br> |
कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो<br> | कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो<br> | ||
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दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से!<br> | दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से!<br> | ||
मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;<br> | मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;<br> | ||
− | हर्ष क स्वर जीवितों का | + | हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग्य है।"<br><br> |
स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-<br> | स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-<br> | ||
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दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,<br> | दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,<br> | ||
जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,<br> | जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,<br> | ||
− | अर्थ | + | अर्थ जिसका अब न कोई याद है।<br><br> |
"आ गये हम पार, तुम उस पार हो;<br> | "आ गये हम पार, तुम उस पार हो;<br> | ||
− | यह पराजय कि जय किसकी हुई?<br> | + | यह पराजय या कि जय किसकी हुई?<br> |
− | + | व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का<br> | |
अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"<br><br> | अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"<br><br> | ||
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'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी<br> | 'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी<br> | ||
शेष क्या है? व्यंग ही तो भग्य का?<br> | शेष क्या है? व्यंग ही तो भग्य का?<br> | ||
− | चाहता था प्राप्त करना जिसे<br> | + | चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे<br> |
तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया?<br><br> | तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया?<br><br> | ||
'सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे<br> | 'सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे<br> | ||
− | चाहता | + | चाहता था, शत्रुओं के साथ ही<br> |
उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में<br> | उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में<br> | ||
− | + | व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर।<br><br> | |
'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,<br> | 'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,<br> |
01:16, 1 अगस्त 2008 का अवतरण
और जब,
तीव्र हर्ष-निनाद उठ कर पाण्डवों के शिविर से
घूमता फिरता गहन कुरुक्षेत्र की मृतभूमि में,
लड़खड़ाता-सा हवा पर एक स्वर निस्सार-सा,
लौट आता था भटक कर पाण्डवों के पास ही,
जीवितों के कान पर मरता हुआ,
और उन पर व्यंग्य-सा करता हुआ-
'देख लो, बाहर महा सुनसान है
सालता जिनका हृदय मैं, लोग वे सब जा चुके।'
हर्ष के स्वर में छिपा जो व्यंग्य है,
कौन सुन समझे उसे? सब लोग तो
अर्द्ध-मृत-से हो रहे आनन्द से;
जय-सुरा की सनसनी से चेतना निस्पन्द है।
किन्तु, इस उल्लास-जड़ समुदाय में
एक ऐसा भी पुरुष है, जो विकल
बोलता कुछ भी नहीं, पर, रो रहा
मग्न चिन्तालीन अपने-आप में।
"सत्य ही तो, जा चुके सब लोग हैं
दूर ईष्या-द्वेष, हाहाकार से!
मर गये जो, वे नहीं सुनते इसे;
हर्ष क स्वर जीवितों का व्यंग्य है।"
स्वप्न-सा देखा, सुयोधन कह रहा-
"ओ युधिष्ठिर, सिन्धु के हम पार हैं;
तुम चिढाने के लिए जो कुछ कहो,
किन्तु, कोई बात हम सुनते नहीं।
"हम वहाँ पर हैं, महाभारत जहाँ
दीखता है स्वप्न अन्तःशून्य-सा,
जो घटित-सा तो कभी लगता, मगर,
अर्थ जिसका अब न कोई याद है।
"आ गये हम पार, तुम उस पार हो;
यह पराजय या कि जय किसकी हुई?
व्यंग्य, पश्चाताप, अन्तर्दाह का
अब विजय-उपहार भोगो चैन से।"
हर्ष का स्वर घूमता निस्सार-सा
लड़खड़ाता मर रहा कुरुक्षेत्र में,
औ' युधिष्ठिर सुन रहे अव्यक्त-सा
एक रव मन का कि व्यापक शून्य का।
'रक्त से सिंच कर समर की मेदिनी
हो गयी है लाल नीचे कोस-भर,
और ऊपर रक्त की खर धार में
तैरते हैं अंग रथ, गज, बाजि के।
'किन्तु, इस विध्वंस के उपरान्त भी
शेष क्या है? व्यंग ही तो भग्य का?
चाहता था प्राप्त मैं करना जिसे
तत्व वह करगत हुआ या उड़ गया?
'सत्य ही तो, मुष्टिगत करना जिसे
चाहता था, शत्रुओं के साथ ही
उड़ गये वे तत्त्व, मेरे हाथ में
व्यंग्य, पश्चाताप केवल छोड़कर।
'यह महाभारत वृथा, निष्फल हुआ,
उफ! ज्वलित कितना गरलमय व्यंग है?
पाँच ही असहिष्णु नर के द्वेष से
हो गया संहार पूरे देश का!
'द्रौपदी हो दिव्य-वस्त्रालंकृता,
और हम भोगें अहम्मय राज्य यह,
पुत्र-पति-हीना इसी से तो हुईं
कोटि माताएँ, करोड़ों नारियाँ!
'रक्त से छाने हुए इस राज्य को
वज्र हो कैसे सकूँगा भोग मैं?
आदमी के खून में यह है सना,
और इसमें है लहू अभिमन्यु का.
वज्र-सा कुछ टूटकर स्मृति से गिरा,
दब गये कौन्तेय दुर्वह भार में.
दब गयी वह बुद्धि जो अब तक रही
खोजती कुछ तत्त्व रण के भस्म में।
भर गया ऐसा हृदय दुख-दर्द-से,
फेन य बुदबुद नहीं उसमें उठा!
खींचकर उच्छ्वास बोले सिर्फ वे
'पार्थ, मैं जाता पितामह पास हूँ।'
और हर्ष-निनाद अन्तःशून्य-सा
लड़खड़ता मर रहा था वायु में।