"मोम सा तन घुल चुका / महादेवी वर्मा" के अवतरणों में अंतर
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
− | + | {{KKGlobal}} | |
− | + | {{KKRachna | |
− | + | |रचनाकार=महादेवी वर्मा | |
+ | }} | ||
− | + | '''काव्य संग्रह [[दीपशिखा / महादेवी वर्मा|दीपशिखा]] से'''<br><br> | |
मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है। <br> | मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है। <br> |
15:18, 1 जून 2007 का अवतरण
काव्य संग्रह दीपशिखा से
मोम सा तन घुल चुका अब दीप सा तन जल चुका है।
विरह के रंगीन क्षण ले,
अश्रु के कुछ शेष कण ले,
वरुनियों में उलझ बिखरे स्वप्न के सूखे सुमन ले,
खोजने फिर शिथिल पग,
निश्वास-दूत निकल चुका है!
चल पलक है निर्निमेषी,
कल्प पल सब तिविरवेषी,
आज स्पंदन भी हुई उर के लिये अज्ञातदेशी
चेतना का स्वर्ण, जलती
वेदना में गल चुका है!
झर चुके तारक-कुसुम जब,
रश्मियों के रजत-पल्लव,
सन्धि में आलोक-तम की क्या नहीं नभ जानता तब,
पार से, अज्ञात वासन्ती,
दिवस-रथ चल चुका है।
खोल कर जो दीप के दृग,
कह गया 'तम में बढा पग'
देख श्रम-धूमिल उसे करते निशा की सांस जगमग,
न आ कहता वही,
'सो, याम अंतिम ढल चुका है'!
अन्तहीन विभावरी है,
पास अंगारक-तरी है,
तिमिर की तटिनी क्षितिज की कूलरेख डुबा भरी है!
शिथिल कर के सुभग सुधि-
पतवार आज बिछल चुका है!
अब कहो सन्देश है क्या?
और ज्वाल विशेष है क्या?
अग्नि-पथ के पार चन्दन-चांदनी का देश है क्या?
एक इंगित के लिये
शत बार प्राण मचल चुका है!