"सोइ रसना जो हरिगुन गावै / सूरदास" के अवतरणों में अंतर
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सोइ रसना जो हरिगुन गावै। | सोइ रसना जो हरिगुन गावै। | ||
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निर्मल चित तौ सोई सांचो कृष्ण बिना जिहिं और न भावै। | निर्मल चित तौ सोई सांचो कृष्ण बिना जिहिं और न भावै। | ||
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स्रवननि की जु यहै अधिकाई, सुनि हरि कथा सुधारस प्यावै॥ | स्रवननि की जु यहै अधिकाई, सुनि हरि कथा सुधारस प्यावै॥ | ||
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कर तैई जै स्यामहिं सेवैं, चरननि चलि बृन्दावन जावै। | कर तैई जै स्यामहिं सेवैं, चरननि चलि बृन्दावन जावै। | ||
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सूरदास, जै यै बलि ताको, जो हरिजू सों प्रीति बढ़ावै॥ | सूरदास, जै यै बलि ताको, जो हरिजू सों प्रीति बढ़ावै॥ | ||
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भावार्थ :- `हरि-परायण' होने में ही हरेक इंद्रिय की सार्थकता है, यही इस पद का सार है | भावार्थ :- `हरि-परायण' होने में ही हरेक इंद्रिय की सार्थकता है, यही इस पद का सार है |
16:28, 24 अक्टूबर 2009 के समय का अवतरण
राग कान्हरा
सोइ रसना जो हरिगुन गावै।
नैननि की छवि यहै चतुरता जो मुकुंद मकरंदहिं धावै॥
निर्मल चित तौ सोई सांचो कृष्ण बिना जिहिं और न भावै।
स्रवननि की जु यहै अधिकाई, सुनि हरि कथा सुधारस प्यावै॥
कर तैई जै स्यामहिं सेवैं, चरननि चलि बृन्दावन जावै।
सूरदास, जै यै बलि ताको, जो हरिजू सों प्रीति बढ़ावै॥
भावार्थ :- `हरि-परायण' होने में ही हरेक इंद्रिय की सार्थकता है, यही इस पद का सार है `नैननि की.....धावे' = नेत्रों को अप्रकट रूप से यहां भ्रमर बनाया गया है। उसी नैन रूपी मधुकर के सफल जीवन हैं, जो मुकुंदरूपी मकरंद अर्थात कृष्ण-छवि पराग का पान करने के लिए दौड़ते हैं।
शब्दार्थ :- रसना =जीभ, वाणी। छवि =शोभा। मकरंद =पराग। न भावै = अच्छा नहीं लगता
है। अधिकाई = बड़ाई, सार्थकता।