[[Category:नागार्जुन]][[Category:कविताएँ]]{{KKGlobal}}{{KKSandarbhKKRachna|लेखकरचनाकार=नागार्जुन|पुस्तक=|प्रकाशक=|वर्ष=|पृष्ठ=
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<poem>
बरफ़ पड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
सजे-सजाए बंगले होंगे
सौ दो सौ चाहे दो-एक हज़ार
बस मुठ्ठी-भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार
देवदारूमय सहस्रबाहु चिर-तरूण हिमाचल कर सकता है क्यों कर अंगीकार
बरफ पड़ी चहल-पहल का नाम नहीं है<br>सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी बरफ़-बरफ़ है काम नहीं है <br>सजे सजाए बंगले होंगे<br>दप-दप उजली साँप सरीखी सरल और बंकिम भंगी में—सौ दो सौ चाहे दो चली गईं हैं दूर-दूर तकनीचे-ऊपर बहुत दूर तकसूनी-सूनी सड़कें मैं जिसमें ठहरा हूँ वह भी छोटा-सा बंगला है—पिछवाड़े का कमरा जिसमें एक हज़ार<br>मात्र जंगला हैबस मुठ्ठी भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार<br>सुबह-सुबह ही देवदारूमय सहस बाहु चिर तरूण हिमाचल कर सकता मैने इसको खोल लिया है क्यों देख रहा हूँ बरफ़ पड़ रही कैसेबरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे या कि विमानों में भर-भर कर अंगीकार<br><br>यक्ष और किन्नर बरसाते कास-कुसुम अविराम
चहल पहल का नाम नहीं है<br>बरफ बरफ है काम नहीं है<br>दप दप उजली सांप सरीखी सरल और बंकिम भंगी में —<br>चली गयीं हैं दूर दूर तक<br>नीचे ऊपर बहुत दूर तक<br>सूनी सूनी सड़कें <br>मैं जिसमें ठहरा हूं वह भी छोटा सा बंगला है —<br>पिछवाड़े का कमरा जिसमें एक मात्र जंगला है<br>सुबह सुबह ही <br>मैने इसको खोल लिया है<br>देख रहा हूं बरफ पड़ रही कैसे<br>बरस ढके जा रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे <br>या कि विमानों में भर भर कर यक्ष और किन्नर बरसाते <br>कास कुसुम अविराम<br><br> ढके जारहे देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग<br>ठिठुर रहीं उंगलियां उंगलियाँ मुझे तो याद आरही आ रही आग<br>गरम -गरम ऊनी लिबास से लैस<br>देव देवियां देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात<br>शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर<br>सिमटे -सिकुड़े नौकर -चाकर चाय बनाते होंगे<br>ठंड कड़ी है<br>सर्वश्वेत पार्वती -प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है <br>बरफ बरफ़ पड़ी है<br><br/poem>