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"अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे / सुदर्शन फ़ाकिर" के अवतरणों में अंतर

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देखनेवालों तबस्सुम को करम मत समझो <br>
 
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उंहें तो देखनेवालों पे हँसी आती है <br><br>
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उन्हें तो देखनेवालों पे हँसी आती है <br><br>
  
 
चाँदनी रात मोहब्बत में हसीन थी "फ़ाकिर" <br>
 
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अब तो बीमार उजालों पे हँसी आती है <br><br>
 
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15:43, 26 नवम्बर 2006 का अवतरण

रचनाकार: सुदर्शन फ़ाकिर

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अहल-ए-उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है
लैला मजनूँ के मिसालों पे हँसी आती है

जब भी तक़मील-ए-मोहब्बत का ख़याल आता है
मुझको अपने ख़यालों पे हँसी आती है

लोग अपने लिये औरों में वफ़ा ढूँढते हैं
उन वफ़ा ढूँढनेवालों पे हँसी आती है

देखनेवालों तबस्सुम को करम मत समझो
उन्हें तो देखनेवालों पे हँसी आती है

चाँदनी रात मोहब्बत में हसीन थी "फ़ाकिर"
अब तो बीमार उजालों पे हँसी आती है