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देना-पाना / अज्ञेय

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{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय}}{{KKCatKavita}} <poem>दो?हाँ, दो<br>बड़ा सुख है देना!<br>देने में<br>अस्ति का भवन नींव तक हिल जाएगा-<br>पर गिरेगा नहीं,<br>और फिर बोध यह लायेगा<br>कि देना नहीं है नि:स्व होना<br>और वह बोध,<br>तुम्हें स्वतंत्रतर बनायेगा।<br>लो? हाँ लो!<br>सौभाग्य है पाना,<br>उसकी आँधी से रोम-रोम<br>एक नई सिहरन से भर जायेगा।<br>पाने में जीना भी कुछ खोना,<br>यों नि:स्व होना तो नहीं,<br>पर है कहीं ऊना हो जाना,<br>पाना अस्मिता का टूट जाना,<br>वह उन्मोचन-यह सोच लो,<br>वह क्या झिल पायेगा?<br><br/poem>
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