"एक अधूरी कविता / असद ज़ैदी" के अवतरणों में अंतर
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मैं तुम्हारे यहाँ बैठा था | मैं तुम्हारे यहाँ बैठा था | ||
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और मुझे लगा मैं किसी चित्र के अन्दर बैठा हूँ | और मुझे लगा मैं किसी चित्र के अन्दर बैठा हूँ | ||
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और यह चिड़िया जो तार पर बैठी है अभी उड़ेगी नहीं | और यह चिड़िया जो तार पर बैठी है अभी उड़ेगी नहीं | ||
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और जल्दी ही कोई आकर ख़बर नहीं लेगा हमारी | और जल्दी ही कोई आकर ख़बर नहीं लेगा हमारी | ||
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और यह योजना यूँ ही बनी रहेगी | और यह योजना यूँ ही बनी रहेगी | ||
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हम नहीं होंगे आख़िरकार विफल | हम नहीं होंगे आख़िरकार विफल | ||
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हम नहीं होंगे विकल | हम नहीं होंगे विकल | ||
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धीरज हमें रास आ जाएगा | धीरज हमें रास आ जाएगा | ||
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हम अपने विनाश को कहेंगे ह्रास | हम अपने विनाश को कहेंगे ह्रास | ||
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तुम्हारी राय होगी वस्तुओं को रूखा और सूखा होना चाहिए | तुम्हारी राय होगी वस्तुओं को रूखा और सूखा होना चाहिए | ||
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तुम कहोगी स्वप्नों को कठोर इच्छाओं को | तुम कहोगी स्वप्नों को कठोर इच्छाओं को | ||
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पानी जैसा फीका होना चाहिए | पानी जैसा फीका होना चाहिए | ||
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और इसी रूप में बन जाना चाहिए हमें प्रेम का ग्रास | और इसी रूप में बन जाना चाहिए हमें प्रेम का ग्रास | ||
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मैं उस जगह से उठ गया जहाँ कभी बैठा था | मैं उस जगह से उठ गया जहाँ कभी बैठा था | ||
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कुर्सियाँ हटा दी गईं पुताई करा दी गई | कुर्सियाँ हटा दी गईं पुताई करा दी गई | ||
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लोग बदल दिए गए फ़र्श का अब उतना बुरा हाल नहीं | लोग बदल दिए गए फ़र्श का अब उतना बुरा हाल नहीं | ||
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पर ग़लती से पुराना धुराना पंखा वहाँ लटका रह गया है | पर ग़लती से पुराना धुराना पंखा वहाँ लटका रह गया है | ||
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धीमे स्वर में घरघराता हुआ | धीमे स्वर में घरघराता हुआ | ||
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जो चित्र में नहीं आया वह आज भी है वैसा ही बना हुआ | जो चित्र में नहीं आया वह आज भी है वैसा ही बना हुआ | ||
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मैं चाहता था कि जब हम जीवन पर बात करें | मैं चाहता था कि जब हम जीवन पर बात करें | ||
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तो कविता को भूल जाएँ | तो कविता को भूल जाएँ | ||
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19:06, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
मैं तुम्हारे यहाँ बैठा था
और मुझे लगा मैं किसी चित्र के अन्दर बैठा हूँ
और यह चिड़िया जो तार पर बैठी है अभी उड़ेगी नहीं
और जल्दी ही कोई आकर ख़बर नहीं लेगा हमारी
और यह योजना यूँ ही बनी रहेगी
हम नहीं होंगे आख़िरकार विफल
हम नहीं होंगे विकल
धीरज हमें रास आ जाएगा
हम अपने विनाश को कहेंगे ह्रास
तुम्हारी राय होगी वस्तुओं को रूखा और सूखा होना चाहिए
तुम कहोगी स्वप्नों को कठोर इच्छाओं को
पानी जैसा फीका होना चाहिए
और इसी रूप में बन जाना चाहिए हमें प्रेम का ग्रास
मैं उस जगह से उठ गया जहाँ कभी बैठा था
कुर्सियाँ हटा दी गईं पुताई करा दी गई
लोग बदल दिए गए फ़र्श का अब उतना बुरा हाल नहीं
पर ग़लती से पुराना धुराना पंखा वहाँ लटका रह गया है
धीमे स्वर में घरघराता हुआ
जो चित्र में नहीं आया वह आज भी है वैसा ही बना हुआ
मैं चाहता था कि जब हम जीवन पर बात करें
तो कविता को भूल जाएँ