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"तुझे इज़हार-ए-मुहब्बत / अहमद नदीम क़ासमी" के अवतरणों में अंतर

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बे-नियाज़ी से, मगर कांपती आवाज़ के साथ
तूने होठों के लरज़ने को तो रोका होता <br><br>
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तूने घबरा के मिरा नाम न पूछा होता  
  
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तूने घबरा के मिरा नाम पूछा होता <br><br>
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अपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होता  
  
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अपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होता <br><br>
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यूं ही बेवजह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी <br>
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19:36, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

तुझे इज़हार-ए-मुहब्बत से अगर नफ़रत है
तूने होठों के लरज़ने को तो रोका होता

बे-नियाज़ी से, मगर कांपती आवाज़ के साथ
तूने घबरा के मिरा नाम न पूछा होता

तेरे बस में थी अगर मशाल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख्सार में गुलज़ार न भड़का होता

यूं तो मुझसे हुई सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें
अपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होता

यूं ही बेवजह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी
दम-ए-रुख्सत में अगर याद न आया होता