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"छेड़े मैनें कभी लब-ओ-रुख़सार के क़िस्से / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर

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छेड़े मैनें कभी लब-ओ-रुख़्सार के क़िस्से
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गहे गुल-ओ-बुलबुल की हिकायत को निखारा
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गहे किसी शहज़ादे के अफ़्साने सुनाये
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गहे क्या दुनिया-ए-परिस्ताँ का नज़ारा
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मैं खोया रहा जिन-ओ-मलैक के जहाँ में
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हर लहजा अगर्चे मुझे आदम ने पुकारा
  
छेड़े मैनें कभी लब--रुख़्सार के क़िस्से <br>
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बरसों यूँ ही दिलजमी--औरंग की ख़ातिर
गहे गुल-ओ-बुलबुल की हिकायत को निखारा <br>
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सौ फूल खिलाये कभी सौ ज़ख़्म ख़रीदे
गहे किसी शहज़ादे के अफ़्साने सुनाये <br>
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मैं लिखता रहा हिज्ब बग़ावत मन्शूं की
गहे क्या दुनिया-ए-परिस्ताँ का नज़ारा <br>
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मैं पढ़ता रहा क़स्र-नशीनों के क़सीदे
मैं खोया रहा जिन-ओ-मलैक के जहाँ में <br>
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उभरा भी अगर दिल में कोई जज़बा-ए-सरकश
हर लहजा अगर्चे मुझे आदम ने पुकारा <br><br>
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इस ख़ौफ़ से चुप था के कोई होंठ न सी दे
  
बरसों यूँ ही दिलजमी--औरंग की ख़ातिर <br>
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लेकिन ये तिलिस्मात भी ता-देर न रह पाये
सौ फूल खिलाये कभी सौ ज़ख़्म ख़रीदे <br>
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आख़िर मै-ओ-मीना-ओ-डफ़-ओ-चंग भी टूटते
मैं लिखता रहा हिज्ब बग़ावत मन्शूं की <br>
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यूँ दस्त-ओ-गरेबाँ हुआ इन्सान-ओ-ख़ुदाबन्द
मैं पढ़ता रहा क़स्र-नशीनों के क़सीदे <br>
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नखचीर तो तड़पे क़फ़स-ए-रंग भी टूटे
उभरा भी अगर दिल में कोई जज़बा-ए-सरकश <br>
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इस कश्मकश-ए-ज़र्रा-ओ-अंजुम की फ़िज़ा में
इस ख़ौफ़ से चुप था के कोई होंठ न सी दे <br><br>
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कशकोल तो क्या अफ़्सर-ओ-औरंग भी टूटे
  
लेकिन ये तिलिस्मात भी ता-देर न रह पाये <br>
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मैं देख रहा था मेरे यारों ने बढ़कर
आख़िर मै-ओ-मीना-ओ-डफ़-ओ-चंग भी टूटते <br>
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क़ातिल को पुकारा कभी मक़्तल को सदा दी
यूँ दस्त-ओ-गरेबाँ हुआ इन्सान-ओ-ख़ुदाबन्द <br>
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गहे रस्न-ओ-दार के आग़ोश में झूले
नखचीर तो तड़पे क़फ़स-ए-रंग भी टूटे <br>
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गहे हरम-ओ-दैर की बुनियाद हिला दी
इस कश्मकश-ए-ज़र्रा-ओ-अंजुम की फ़िज़ा में<br>
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जिस आग से भरपूर था माहौल का सीना
कशकोल तो क्या अफ़्सर-ओ-औरंग भी टूटे <br><br>
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वो आग मेरे लौह-ओ-क़लम को भी पिला दी
  
मैं देख रहा था मेरे यारों ने बढ़कर <br>
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और आज शिकस्ता हुआ हर तौक़-ए-तलाई  
क़ातिल को पुकारा कभी मक़्तल को सदा दी <br>
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अब फ़न मेरा दरबार की जगीर नहीं है  
गहे रस्न-ओ-दार के आग़ोश में झूले <br>
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अब मेरा हुनर है मेरे जमहूर की दौलत  
गहे हरम-ओ-दैर की बुनियाद हिला दी <br>
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अब मेरा जुनूँ कैफ़-ए-ताज़ीर नहीं है  
जिस आग से भरपूर था माहौल का सीना <br>
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अब दिल पे जो गुज़रेगी बे-टोक कहूँगा  
वो आग मेरे लौह-ओ-क़लम को भी पिला दी <br><br>
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अब मेरे क़लम में कोई ज़ंज़ीर नहीं है  
 
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और आज शिकस्ता हुआ हर तौक़-ए-तलाई <br>
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अब फ़न मेरा दरबार की जगीर नहीं है <br>
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अब मेरा हुनर है मेरे जमहूर की दौलत <br>
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अब मेरा जुनूँ कैफ़-ए-ताज़ीर नहीं है <br>
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अब दिल पे जो गुज़रेगी बे-टोक कहूँगा <br>
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अब मेरे क़लम में कोई ज़ंज़ीर नहीं है <br><br>
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20:21, 8 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

छेड़े मैनें कभी लब-ओ-रुख़्सार के क़िस्से
गहे गुल-ओ-बुलबुल की हिकायत को निखारा
गहे किसी शहज़ादे के अफ़्साने सुनाये
गहे क्या दुनिया-ए-परिस्ताँ का नज़ारा
मैं खोया रहा जिन-ओ-मलैक के जहाँ में
हर लहजा अगर्चे मुझे आदम ने पुकारा

बरसों यूँ ही दिलजमी-ए-औरंग की ख़ातिर
सौ फूल खिलाये कभी सौ ज़ख़्म ख़रीदे
मैं लिखता रहा हिज्ब बग़ावत मन्शूं की
मैं पढ़ता रहा क़स्र-नशीनों के क़सीदे
उभरा भी अगर दिल में कोई जज़बा-ए-सरकश
इस ख़ौफ़ से चुप था के कोई होंठ न सी दे

लेकिन ये तिलिस्मात भी ता-देर न रह पाये
आख़िर मै-ओ-मीना-ओ-डफ़-ओ-चंग भी टूटते
यूँ दस्त-ओ-गरेबाँ हुआ इन्सान-ओ-ख़ुदाबन्द
नखचीर तो तड़पे क़फ़स-ए-रंग भी टूटे
इस कश्मकश-ए-ज़र्रा-ओ-अंजुम की फ़िज़ा में
कशकोल तो क्या अफ़्सर-ओ-औरंग भी टूटे

मैं देख रहा था मेरे यारों ने बढ़कर
क़ातिल को पुकारा कभी मक़्तल को सदा दी
गहे रस्न-ओ-दार के आग़ोश में झूले
गहे हरम-ओ-दैर की बुनियाद हिला दी
जिस आग से भरपूर था माहौल का सीना
वो आग मेरे लौह-ओ-क़लम को भी पिला दी

और आज शिकस्ता हुआ हर तौक़-ए-तलाई
अब फ़न मेरा दरबार की जगीर नहीं है
अब मेरा हुनर है मेरे जमहूर की दौलत
अब मेरा जुनूँ कैफ़-ए-ताज़ीर नहीं है
अब दिल पे जो गुज़रेगी बे-टोक कहूँगा
अब मेरे क़लम में कोई ज़ंज़ीर नहीं है