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अब बुज़ुर्गों के फ़साने नहीं अच्छे लगते | अब बुज़ुर्गों के फ़साने नहीं अच्छे लगते |
03:32, 9 दिसम्बर 2006 का अवतरण
रचना संदर्भ | रचनाकार: | उर्मिलेश | |
पुस्तक: | प्रकाशक: | ||
वर्ष: | पृष्ठ संख्या: |
अब बुज़ुर्गों के फ़साने नहीं अच्छे लगते
मेरे बच्चों को ये ताने नहीं अच्छे लगते।।
बेटियाँ जबसे बड़ी होने लगी हैं मेरी।
मुझको इस दौर के गाने नहीं अच्छे लगते।।
उम्र कम दिखने के नुस्ख़े तो कई हैं लेकिन।
आइनों को ये बहाने नहीं अच्छे लगते।।
उसको तालीम मिली डैडी-ममी के युग में।
उसको माँ-बाप पुराने नहीं अच्छे लगते।।
अब वो महंगाई को फ़ैशन की तरह लेता है।
अब उसे सस्ते ज़माने नहीं अच्छे लगते।।
हमने अख़बार को पढ़कर ये कहावत यों कही।
'दूर के ढोल सुहाने' नहीं अच्छे लगते।।
दोस्तो, तुमने वो अख़लाक हमें बख्शा है।
अब हमें दोस्त बनाने नहीं अच्छे लगते।।