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"क्षमा करना / आलोक श्रीवास्तव-२" के अवतरणों में अंतर

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क्षमा करना  
 
क्षमा करना  
 
सिर्फ़ तुम्हारा शरीर पाना चाहा  
 
सिर्फ़ तुम्हारा शरीर पाना चाहा  

10:37, 10 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

क्षमा करना
सिर्फ़ तुम्हारा शरीर पाना चाहा
नयी परिभाषायें गढ़ीं
चौकन्ने शब्द दिये अपनी ख़्वाहिश को
क्षमा करना, एक बहुत काली लंबी रात थी हमारे चारों ओर
एक जंगल था मायावी दरख़्तों का……

बहुत भरोसा था हमें कोमल शब्दों पर
और सदियों के आंसुओं से तुम्हारी आंख़ें गीली थीं
यकीन था भावनाओं पर
पर तुम्हारे स्वत्व पर लोहे की जिन सलाखों के निशान थे
उसका कोई काट न था इन भावनाओं के पास
शब्द थे ढेर सारे
निरर्थक नहीं थे सब
पर तुमको संबोधित हो कर भी कितने गैर थे तुम्हारे लिये

क्षमा करना, इन्हीं शब्दों के बीहड़ वन में
बदहवाश भटकते बीत गया है कितना वक्त……
तुम हमारे सपनों में मौजूद रही
हमारी रचना, हमारे काम, हमारे संघर्ष, हमारे रक्त में तैरती रहीं
बजती रहीं हमारी निराशाओं, हमारे दुख के रक्तों में
स्मरण का राग बनकर

क्षमा करना, हम कुछ नहीं कर सके तुम्हारे लिये

तुम पीछे छूटे कस्बों में
धुंधली रातों और विशाल तपते दिनों में ढोती रहीं जिन्दगी
और हम शहर-दर-शहर
अपनी मामूली उपलब्धियों पर बच्चों की तरह खुश होते
मामूली दुखों पर गहरे अवसाद से भर जाते
भागते रहे, थकते रहे, टूटते रहे
कोसते रहे हन वक्त को
हज़ार ज़ंज़ीरें बन कर ज़िंदगी
दिन-ब-दिन तुमसे दूर करती रही हमें
क्षमा करना, हमें फुरसत ही नहीं मिल पायी
तुम तक लौट पाने की

वसंत, फूल, चांदनी और हिलोर से भरी
अपनी ज़िंदगी तुम्हें हैरान करती रही
हैरान करते रहे तुम्हें वे सपने
जिनमें एक खुला क्षितिज होता था
और एक अजस्रप्रवाही सलिला
कैशोर्य का एक दोस्त चेहरा होता था जिनमें
क्षमा करना, वह हमारा ही चेहरा था -
वक्त की गर्द से घिरा
न तुम्हें पहचान पाता
न ख़ुद की शिनाख़्त कर पाता

क्षमा करना,
हम तुम्हारे लिये लड़ नहीं सके कोई लड़ाई
हालांकि दावा करते रहे
गुज़र गईं बारिश से डूबी तमाम अंधेरी रातें
रंग और गंध की आवाज़ें देता कितनी बार गुज़रा वसंत
दहकते पलाश-फूलों वाली चैत्र हवाओं ने
न जाने कितने स्मरण बांचे
हर बार तुम्हारी नयी छवियां लिये उतरा आषाढ़
पर तमाम नेक इरादों और प्रतीक्षाओं के बावजूद कभीं नहीं आयी वह ॠतु
जो तुम्हें एक भयावह बियाबान में
न जाने क्या ढूंढती-खोजती छोड़ कर लौट गयी थी

क्षमा करना,
हम तुम्हारे लिये वह ॠतु तक न खोज सके

वक्त की भारी सलाखों से छिल गये हमारे कंधे देखो
देखो यह विकृत हो गया चेहरा, ये पत्थर हुई आंखें
इनमें तुम नहीं हो
एक बंजर समय है
मध्य-वर्ग का उत्तरपूंज़ीवादी हिंस्र समाज है
तुम नहीं हो इन आंख़ों में

पर कही तो हो तुम
अपनी लड़ाई अपनी तरह से लड़ती ।