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"मम्दूह / फ़राज़" के अवतरणों में अंतर

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|संग्रह=दर्द आशोब / फ़राज़  
 
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<poem>
 
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चन्द लम्हों<ref>क्षणों</ref>के लिए तूने मसीहाई<ref>इलाज</ref>की
+
            मम्दूह<ref>प्रशंसित</ref>
फिर वही मैं हूँ वही उम्र है तन्हाई <ref>अकेलापन</ref>की
+
  
किस पे गु़ज़री न शबे-हिज्र<ref>विरह की रात</ref>क़यामात<ref>प्रलय</ref>की तरह
+
मैंने कब की है तिरे काकुलो-लब<ref>बालों व होंठों  </ref>की तारीफ़<ref>प्रशंसा</ref>
फ़र्क़ इतना है कि हमने सुख़न-आराई<ref>काव्य-रचना</ref>की
+
मैंने कब लिक्खे क़सीदे<ref>प्रशंसा</ref> तिरे रुख़सारों<ref>गालों की</ref>  के
 +
मैंने कब तेरे सरापा<ref>सिर से पाँव  तक</ref>की हिक़ायात<ref>कथाएँ</ref>  कहीं
 +
मैं ने कब शेर<ref>ग़ज़ल की दो पंक्तियाँ</ref>  कहे झूमते गुलज़ारों <ref>उद्यानों</ref>  के
 +
जाने दो दिन की महब्बत में में ये बहके हुए लोग
 +
कैसे अफ़साने बना लेते है दाराओं<ref>वीरों</ref> के
  
अपनी बाहों में सिमट आई है वो क़ौसे-क़ुज़:<ref>इंद्र-धनुष</ref>
+
मैं कि शायर था मेरे फ़न <ref>कला</ref> की रवायत<ref>परंपरा</ref> थी यही
लोग तस्वीर ही खींचा किए अँगड़ाई की
+
मुझको इक फूल नज़र आए तो तो गुलज़ार कहूँ
 +
मुस्कुराती हुई हर आँख को क़ातिल<ref>वध करने वाला</ref>  जानूँ
 +
हर निगाहे-ग़लतअन्दाज़ <ref>भ्रम में डालने वाली दृष्टि</ref>  को तलवार कहूँ
 +
मेरी फ़ितरत<ref>स्वभाव</ref>थी कि मैं हुस्ने-बयाँ<ref>बात कहने का ढंग का सौंदर्य</ref> की ख़ातिर
 +
हर हसीं लफ़्ज़ <ref>सुन्दर शब्द को</ref>  को दर-मदहे-रुख़े-यार <ref>प्रेयसी के चेहरे की प्रशंसा</ref>  कहूँ
  
ग़ैरते-इश्क़<ref>प्रेम का स्वाभिमान</ref>बजा तान--याराँ <ref>मित्रों के कटाक्ष</ref>तस्लीम<ref>स्वीकार्य</ref>
+
मेरे दिल में भी खिले हैं तेरी चाहत के कँवल
बात करते हैं मगर सब उसी हरजाई की
+
ऐसी चाहत कि जो वहशी<ref>पागल</ref> हो तो क्या-क्या न करे
 +
मुझे गर हो भी तो क्या ज़ोमे-तवाफ़े-शो’ला<ref> अंगारों की परिक्रमा का गर्व</ref>
 +
तू है वो शम्अ कि पत्थर की भी परवा<ref>चिन्ता</ref> न करे
 +
मैं नहीं कहता कि तुझ-सा है न मुझ-सा कोई
 +
वरना शोरीदगी-ए-शौक़<ref>शौक़ का पागलपन</ref> तू दीवाना करे
  
उनको भूले हैं तो कुछ और परेशाँ<ref>दु:खी</ref>हैं ‘फ़राज़’
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अपनी दानिस्त<ref>जानकारी</ref>में दिल ने बड़ी दानाई <ref>समझदारी</ref>की
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17:14, 11 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण

            मम्दूह<ref>प्रशंसित</ref>

मैंने कब की है तिरे काकुलो-लब<ref>बालों व होंठों </ref>की तारीफ़<ref>प्रशंसा</ref>
मैंने कब लिक्खे क़सीदे<ref>प्रशंसा</ref> तिरे रुख़सारों<ref>गालों की</ref> के
मैंने कब तेरे सरापा<ref>सिर से पाँव तक</ref>की हिक़ायात<ref>कथाएँ</ref> कहीं
मैं ने कब शेर<ref>ग़ज़ल की दो पंक्तियाँ</ref> कहे झूमते गुलज़ारों <ref>उद्यानों</ref> के
जाने दो दिन की महब्बत में में ये बहके हुए लोग
कैसे अफ़साने बना लेते है दाराओं<ref>वीरों</ref> के

मैं कि शायर था मेरे फ़न <ref>कला</ref> की रवायत<ref>परंपरा</ref> थी यही
मुझको इक फूल नज़र आए तो तो गुलज़ार कहूँ
मुस्कुराती हुई हर आँख को क़ातिल<ref>वध करने वाला</ref> जानूँ
हर निगाहे-ग़लतअन्दाज़ <ref>भ्रम में डालने वाली दृष्टि</ref> को तलवार कहूँ
मेरी फ़ितरत<ref>स्वभाव</ref>थी कि मैं हुस्ने-बयाँ<ref>बात कहने का ढंग का सौंदर्य</ref> की ख़ातिर
हर हसीं लफ़्ज़ <ref>सुन्दर शब्द को</ref> को दर-मदहे-रुख़े-यार <ref>प्रेयसी के चेहरे की प्रशंसा</ref> कहूँ

मेरे दिल में भी खिले हैं तेरी चाहत के कँवल
ऐसी चाहत कि जो वहशी<ref>पागल</ref> हो तो क्या-क्या न करे
मुझे गर हो भी तो क्या ज़ोमे-तवाफ़े-शो’ला<ref> अंगारों की परिक्रमा का गर्व</ref>
तू है वो शम्अ कि पत्थर की भी परवा<ref>चिन्ता</ref> न करे
मैं नहीं कहता कि तुझ-सा है न मुझ-सा कोई
वरना शोरीदगी-ए-शौक़<ref>शौक़ का पागलपन</ref> तू दीवाना करे

शब्दार्थ
<references/>