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"सन्नाटा / कैलाश गौतम" के अवतरणों में अंतर

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कलरव घर में नहीं रहा सन्नाटा पसरा है
 
कलरव घर में नहीं रहा सन्नाटा पसरा है
  
सुबह-सुबह ही सूरज का मुंह उतरा-उतरा है।
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पानी ठहरा जहां, वहां पर
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पत्थर बहता है
 
पत्थर बहता है
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हंसता हूं जब तुम कबीर की
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हँसता हूँ जब तुम कबीर की
  
 
साखी देते हो
 
साखी देते हो

13:47, 16 मई 2007 का अवतरण

लेखक: कैलाश गौतम

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कलरव घर में नहीं रहा सन्नाटा पसरा है

सुबह-सुबह ही सूरज का मुँह उतरा-उतरा है।


पानी ठहरा जहाँ, वहाँ पर

पत्थर बहता है

अपराधी ने देश बचाया

हाकिम कहता है

हाकिम का भी अपराधी से रिश्ता गहरा है।


हँसता हूँ जब तुम कबीर की

साखी देते हो

पैर काटकर लोगों को

वैसाखी देते हो

दहशत में है आम आदमी, तुमसे खतरा है।


ठगा गया है आम आदमी

आया धोखे में

घर में भूत जमाये डेरा

देव झरोखे में

गूंगों की पंचायत करने वाला बहरा है।


जैसा तुम बोओगे भाई!

वैसा काटोगे

भैंसे की मन्नत माने हो

भैंसा काटोगे

तेरी बारी है चोरी की, तेरा पहरा है।