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सियाराम का मन रमता है नाती पोतों में
 
सियाराम का मन रमता है नाती पोतों में
  

17:12, 10 दिसम्बर 2006 का अवतरण

लेखक: कैलाश गौतम

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सियाराम का मन रमता है नाती पोतों में

नहीं भागता मेले ठेले बागों खेतों में

बच्चों के संग सियाराम भी सोते जगते हैं

बच्चों में रहते हैं हरदम बच्चे लगते हैं

टाफी खाते, बिस्कुट खाते ठंडा पीते हैं

टी.वी. के चैनल से ज्यादा चैनल जीते हैं

घोड़ा बनते इंजन बनते गाल फुलाते हैं

गुब्बारे में हवा फूंकते और उड़ाते हैं

सियाराम की दिनभर की दिनचर्या बदल गयी

नहीं कचहरी की चिन्ता बस आयी निकल गयी

चश्मे का शीशा फूटा औ छतरी टूट गयी

भूल गये भगवान सुबह की पूजा छूट गयी