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"काफी नहीं था स्त्री होना / रवीन्द्र दास" के अवतरणों में अंतर
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काफी नहीं था उसका सिर्फ़ स्त्री होना | काफी नहीं था उसका सिर्फ़ स्त्री होना | ||
दुनिया की और भी रवायतें थीं | दुनिया की और भी रवायतें थीं | ||
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खुले आसमान में | खुले आसमान में | ||
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मुक्त उड़ान के लिए चाहिए था पंख भी .... | मुक्त उड़ान के लिए चाहिए था पंख भी .... | ||
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पर जब समझ में आया | पर जब समझ में आया | ||
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हो चुकी थी शाम | हो चुकी थी शाम | ||
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नए दिन का नया अँधेरा ! | नए दिन का नया अँधेरा ! | ||
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करना होगा इंतजार रात ख़त्म होने का | करना होगा इंतजार रात ख़त्म होने का | ||
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करनी होगी तैयारी नई शुरुआत की । | करनी होगी तैयारी नई शुरुआत की । | ||
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दूर ही रखा गया था उसे | दूर ही रखा गया था उसे | ||
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असल पाठ से | असल पाठ से | ||
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व्याख्याओं के उत्तेजक तेवर ने | व्याख्याओं के उत्तेजक तेवर ने | ||
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भरमा दी थी बुद्धि | भरमा दी थी बुद्धि | ||
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कि कानून के लिहाज से | कि कानून के लिहाज से | ||
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मिलेगी सज़ा हर अपराधी को | मिलेगी सज़ा हर अपराधी को | ||
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यह सुनना सुखद है जितना | यह सुनना सुखद है जितना | ||
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उतना ही मुश्किल है - | उतना ही मुश्किल है - | ||
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साबित करना अपराधी का अपराध। | साबित करना अपराधी का अपराध। | ||
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काफी नही था उसका विद्रोह करना | काफी नही था उसका विद्रोह करना | ||
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चूँकि तय नहीं थी मंजिल | चूँकि तय नहीं थी मंजिल | ||
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कोई रास्ता भी नहीं था मालूम | कोई रास्ता भी नहीं था मालूम | ||
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घूर रही थी | घूर रही थी | ||
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पेशेवर विद्रोहियों की रक्तिम आँखें | पेशेवर विद्रोहियों की रक्तिम आँखें | ||
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भाग तो सकती है अभी भी | भाग तो सकती है अभी भी | ||
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पर कहाँ ? रस्ते का पता जो नहीं है ! | पर कहाँ ? रस्ते का पता जो नहीं है ! | ||
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19:54, 15 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
काफी नहीं था उसका सिर्फ़ स्त्री होना
दुनिया की और भी रवायतें थीं
खुले आसमान में
मुक्त उड़ान के लिए चाहिए था पंख भी ....
पर जब समझ में आया
हो चुकी थी शाम
नए दिन का नया अँधेरा !
करना होगा इंतजार रात ख़त्म होने का
करनी होगी तैयारी नई शुरुआत की ।
दूर ही रखा गया था उसे
असल पाठ से
व्याख्याओं के उत्तेजक तेवर ने
भरमा दी थी बुद्धि
कि कानून के लिहाज से
मिलेगी सज़ा हर अपराधी को
यह सुनना सुखद है जितना
उतना ही मुश्किल है -
साबित करना अपराधी का अपराध।
काफी नही था उसका विद्रोह करना
चूँकि तय नहीं थी मंजिल
कोई रास्ता भी नहीं था मालूम
घूर रही थी
पेशेवर विद्रोहियों की रक्तिम आँखें
भाग तो सकती है अभी भी
पर कहाँ ? रस्ते का पता जो नहीं है !