भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"पहले-पहल तो ख़्वाबों का दम भरने लगती हैं / सलीम कौसर" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सलीम कौसर |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> पहले-पहल तो ख़्वा…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
14:06, 24 नवम्बर 2009 के समय का अवतरण
पहले-पहल तो ख़्वाबों का दम भरने लगती हैं
फिर आँखें पलकों में छुप कर रोने लगती हैं
जाने तब क्यों सूरज की ख़्वाहिश करते हैं लोग
जब बारिश में सब दीवारें गिरने लगती हैं
तस्वीरों का रोग भी आख़िर कैसा होता है
तन्हाई में बात करो तो बोलने लगती हैं
साहिल से टकराने वाली वहशी मौजें भी
ज़िन्दा रहने की ख़्वाहिश में मरने लगती हैं
तुम क्या जानो लफ़्ज़ों के आज़ार की शिद्दत को
यादें तक सोचों की आग में जलने लगती हैं