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"आह को चाहिये इक उम्र असर होते तक / ग़ालिब" के अवतरणों में अंतर

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शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक <br><br>
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शम्म'अ हर रंग में जलती है सहर होने तक <br><br>

06:12, 26 दिसम्बर 2006 का अवतरण

लेखक: गा़लिब

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आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक

दाम हर मौज में है हल्क़ा-ए-सदकामे-निहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे गौहर होने तक

आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक

हम ने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक

पर्तव-ए-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक

यकनज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर होने तक

ग़्मे-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्म'अ हर रंग में जलती है सहर होने तक