भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"कई बार निर्निमेष .. / हिमांशु पाण्डेय" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हिमांशु पाण्डेय }} <poem> कई बार निर्निमेष अविरत दे…) |
(कोई अंतर नहीं)
|
12:59, 14 दिसम्बर 2009 के समय का अवतरण
कई बार निर्निमेष
अविरत देखता हूँ उसे
यह निरखना
उसकी अन्तःसमता को पहचानना है
मैं महसूस करता हूँ
नदी बेहिचक बिन विचारे
अपना सर्वस्व उड़ेलती है
फिर भी वह अहमन्य नहीं होता
सिर नहीं फिरता उसका;
उसकी अन्तःअग्नि, बड़वानल दिन रात
उसे सुखाती रहती है
फिर भी वह कातर नहीं होता
दीनता उसे छू भी नहीं जाती ।
कई बार निर्निमेष अविरत देखता हूँ उसे
वह मिट्टी का है, पर सागर है -
धीर भी गंभीर भी ।