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"आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ २" के अवतरणों में अंतर

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प्रतिमा में सजीवता-सी<br />
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बस गयी सुछवि आँखों में<br />
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प्रतिमा में सजीवता-सी  
थी एक लकीर हृदय में <br />
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बस गयी सुछवि आँखों में  
जो अलग रही लाखों में।<br />
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थी एक लकीर हृदय में
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जो अलग रही लाखों में।  
माना कि रूप सीमा हैं<br />
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सुन्दर!  तव चिर यौवन में<br />
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माना कि रूप सीमा हैं  
पर समा गये थे, मेरे<br />
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सुन्दर!  तव चिर यौवन में  
मन के निस्सीम गगन में।<br />
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पर समा गये थे, मेरे  
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मन के निस्सीम गगन में।  
लावण्य शैल राई-सा<br />
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जिस पर वारी बलिहारी<br />
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लावण्य शैल राई-सा  
उस कमनीयता कला की<br />
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जिस पर वारी बलिहारी  
सुषमा थी प्यारी-प्यारी।<br />
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उस कमनीयता कला की  
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सुषमा थी प्यारी-प्यारी।  
बाँधा था विधु को किसने<br />
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इन काली जंजीरों से<br />
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बाँधा था विधु को किसने  
मणि वाले फणियों का मुख<br />
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इन काली जंजीरों से  
क्यों भरा हुआ हीरों से?<br />
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मणि वाले फणियों का मुख  
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क्यों भरा हुआ हीरों से?  
काली आँखों में कितनी <br />
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यौवन के मद की लाली<br />
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काली आँखों में कितनी
मानिक मदिरा से भर दी<br />
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यौवन के मद की लाली  
किसने नीलम की प्याली?<br />
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मानिक मदिरा से भर दी  
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किसने नीलम की प्याली?  
तिर रही अतृप्ति जलधि में<br />
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नीलम की नाव निराली<br />
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तिर रही अतृप्ति जलधि में  
कालापानी वेला-सी<br />
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नीलम की नाव निराली  
हैं अंजन रेखा काली।<br />
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कालापानी वेला-सी  
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हैं अंजन रेखा काली।  
अंकित कर क्षितिज पटी को<br />
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तूलिका बरौनी तेरी<br />
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अंकित कर क्षितिज पटी को  
कितने घायल हृदयों की<br />
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तूलिका बरौनी तेरी  
बन जाती  चतुर चितेरी।<br />
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कितने घायल हृदयों की  
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बन जाती  चतुर चितेरी।  
कोमल कपोल पाली में<br />
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सीधी सादी स्मित रेखा<br />
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कोमल कपोल पाली में  
जानेगा वही कुटिलता<br />
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सीधी सादी स्मित रेखा  
जिसमें भौं में बल देखा।<br />
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जानेगा वही कुटिलता  
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जिसमें भौं में बल देखा।  
विद्रुम सीपी सम्पुट में<br />
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मोती के दाने कैसे<br />
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विद्रुम सीपी सम्पुट में  
हैं हंस न, शुक यह, फिर क्यों<br />
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मोती के दाने कैसे  
चुगने की मुद्रा ऐसे?<br />
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हैं हंस न, शुक यह, फिर क्यों  
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चुगने की मुद्रा ऐसे?  
विकसित सरसित वन-वैभव<br />
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मधु-ऊषा के अंचल में<br />
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विकसित सरसित वन-वैभव  
उपहास करावे अपना<br />
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मधु-ऊषा के अंचल में  
जो हँसी देख ले पल में!<br />
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उपहास करावे अपना  
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जो हँसी देख ले पल में!  
मुख-कमल समीप सजे थे<br />
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दो किसलय से पुरइन के<br />
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मुख-कमल समीप सजे थे  
जलबिन्दु सदृश ठहरे कब<br />
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दो किसलय से पुरइन के  
उन कानों में दुख किनके?<br />
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जलबिन्दु सदृश ठहरे कब  
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उन कानों में दुख किनके?  
थी किस अनंग के धनु की<br />
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वह शिथिल शिंजिनी दुहरी<br />
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थी किस अनंग के धनु की  
अलबेली बाहुलता या<br />
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वह शिथिल शिंजिनी दुहरी  
तनु छवि सर की नव लहरी?<br />
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अलबेली बाहुलता या  
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तनु छवि सर की नव लहरी?  
चंचला स्नान कर आवे<br />
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चंद्रिका पर्व में जैसी<br />
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चंचला स्नान कर आवे  
उस पावन तन की शोभा<br />
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चंद्रिका पर्व में जैसी  
आलोक मधुर थी ऐसी!<br />
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उस पावन तन की शोभा  
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आलोक मधुर थी ऐसी!  
छलना थी, तब भी मेरा<br />
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उसमें विश्वास घना था<br />
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छलना थी, तब भी मेरा  
उस माया की छाया में<br />
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उसमें विश्वास घना था  
कुछ सच्चा स्वयं बना था।<br />
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उस माया की छाया में  
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कुछ सच्चा स्वयं बना था।  
वह रूप रूप ही केवल<br />
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या रहा हृदय भी उसमें<br />
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वह रूप रूप ही केवल  
जड़ता की सब माया थी<br />
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या रहा हृदय भी उसमें  
चैतन्य समझ कर मुझमें।<br />
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जड़ता की सब माया थी  
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चैतन्य समझ कर मुझमें।  
मेरे जीवन की उलझन<br />
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बिखरी थी उनकी अलकें<br />
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मेरे जीवन की उलझन  
पी ली मधु मदिरा किसने<br />
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बिखरी थी उनकी अलकें  
थी बन्द हमारी पलकें।<br />
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पी ली मधु मदिरा किसने  
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थी बन्द हमारी पलकें।  
ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी<br />
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बस शान्ति विहँसती बैठी<br />
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ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी  
उस बन्धन में सुख बँधता<br />
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बस शान्ति विहँसती बैठी  
करुणा रहती थी ऐंठी।<br />
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उस बन्धन में सुख बँधता  
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करुणा रहती थी ऐंठी।  
हिलते द्रुमदल कल किसलय<br />
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देती गलबाँही डाली<br />
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हिलते द्रुमदल कल किसलय  
फूलों का चुम्बन, छिड़ती<br />
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देती गलबाँही डाली  
मधुप की तान निराली।<br />
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फूलों का चुम्बन, छिड़ती  
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मधुप की तान निराली।  
मुरली मुखरित होती थी<br />
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मुकुलों के अधर बिहँसते<br />
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मुरली मुखरित होती थी  
मकरन्द भार से दब कर<br />
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मुकुलों के अधर बिहँसते  
श्रवणों में स्वर जा बसते।<br />
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मकरन्द भार से दब कर  
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श्रवणों में स्वर जा बसते।  
परिरम्भ कुम्भ की मदिरा<br />
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निश्वास मलय के झोंके<br />
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परिरम्भ कुम्भ की मदिरा  
मुख चन्द्र चाँदनी जल से<br />
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निश्वास मलय के झोंके  
मैं उठता था मुँह धोके।<br />
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मुख चन्द्र चाँदनी जल से  
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मैं उठता था मुँह धोके।  
थक जाती थी सुख रजनी<br />
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मुख चन्द्र हृदय में होता<br />
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थक जाती थी सुख रजनी  
श्रम सीकर सदृश नखत से<br />
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मुख चन्द्र हृदय में होता  
अम्बर पट भीगा होता।<br />
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श्रम सीकर सदृश नखत से  
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अम्बर पट भीगा होता।  
सोयेगी कभी न वैसी<br />
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फिर मिलन कुंज में मेरे<br />
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सोयेगी कभी न वैसी  
चाँदनी शिथिल अलसायी<br />
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फिर मिलन कुंज में मेरे  
सुख के सपनों से तेरे।<br />
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चाँदनी शिथिल अलसायी  
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सुख के सपनों से तेरे।  
लहरों में प्यास भरी है<br />
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है भँवर पात्र भी खाली<br />
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लहरों में प्यास भरी है  
मानस का सब रस पी कर<br />
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है भँवर पात्र भी खाली  
लुढ़का दी तुमने प्याली।<br />
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मानस का सब रस पी कर  
<br />
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लुढ़का दी तुमने प्याली।  
किंजल्क जाल हैं बिखरे<br />
+
उड़ता पराग हैं रूखा<br />
+
किंजल्क जाल हैं बिखरे  
हैं स्नेह सरोज हमारा<br />
+
उड़ता पराग हैं रूखा  
विकसा, मानस में सूखा।<br />
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हैं स्नेह सरोज हमारा  
<br />
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विकसा, मानस में सूखा।  
छिप गयी कहाँ छू कर वे<br />
+
मलयज की मृदु हिलोरें<br />
+
छिप गयी कहाँ छू कर वे  
क्यों घूम गयी हैं आ कर<br />
+
मलयज की मृदु हिलोरें  
करुणा कटाक्ष की कोरें।<br />
+
क्यों घूम गयी हैं आ कर  
<br />
+
करुणा कटाक्ष की कोरें।  
विस्मृति हैं, मादकता हैं<br />
+
मूचर्छना भरी हैं मन में<br />
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विस्मृति हैं, मादकता हैं  
कल्पना रही, सपना था<br />
+
मूचर्छना भरी हैं मन में  
मुरली बजती निर्जन में।<br />
+
कल्पना रही, सपना था  
<br />
+
मुरली बजती निर्जन में।  
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01:22, 20 दिसम्बर 2009 का अवतरण

प्रतिमा में सजीवता-सी
बस गयी सुछवि आँखों में
थी एक लकीर हृदय में
जो अलग रही लाखों में।
 
माना कि रूप सीमा हैं
सुन्दर! तव चिर यौवन में
पर समा गये थे, मेरे
मन के निस्सीम गगन में।
 
लावण्य शैल राई-सा
जिस पर वारी बलिहारी
उस कमनीयता कला की
सुषमा थी प्यारी-प्यारी।
 
बाँधा था विधु को किसने
इन काली जंजीरों से
मणि वाले फणियों का मुख
क्यों भरा हुआ हीरों से?
 
काली आँखों में कितनी
यौवन के मद की लाली
मानिक मदिरा से भर दी
किसने नीलम की प्याली?
 
तिर रही अतृप्ति जलधि में
नीलम की नाव निराली
कालापानी वेला-सी
हैं अंजन रेखा काली।
 
अंकित कर क्षितिज पटी को
तूलिका बरौनी तेरी
कितने घायल हृदयों की
बन जाती चतुर चितेरी।
 
कोमल कपोल पाली में
सीधी सादी स्मित रेखा
जानेगा वही कुटिलता
जिसमें भौं में बल देखा।
 
विद्रुम सीपी सम्पुट में
मोती के दाने कैसे
हैं हंस न, शुक यह, फिर क्यों
चुगने की मुद्रा ऐसे?
 
विकसित सरसित वन-वैभव
मधु-ऊषा के अंचल में
उपहास करावे अपना
जो हँसी देख ले पल में!
 
मुख-कमल समीप सजे थे
दो किसलय से पुरइन के
जलबिन्दु सदृश ठहरे कब
उन कानों में दुख किनके?
 
थी किस अनंग के धनु की
वह शिथिल शिंजिनी दुहरी
अलबेली बाहुलता या
तनु छवि सर की नव लहरी?
 
चंचला स्नान कर आवे
चंद्रिका पर्व में जैसी
उस पावन तन की शोभा
आलोक मधुर थी ऐसी!
 
छलना थी, तब भी मेरा
उसमें विश्वास घना था
उस माया की छाया में
कुछ सच्चा स्वयं बना था।
 
वह रूप रूप ही केवल
या रहा हृदय भी उसमें
जड़ता की सब माया थी
चैतन्य समझ कर मुझमें।
 
मेरे जीवन की उलझन
बिखरी थी उनकी अलकें
पी ली मधु मदिरा किसने
थी बन्द हमारी पलकें।
 
ज्यों-ज्यों उलझन बढ़ती थी
बस शान्ति विहँसती बैठी
उस बन्धन में सुख बँधता
करुणा रहती थी ऐंठी।
 
हिलते द्रुमदल कल किसलय
देती गलबाँही डाली
फूलों का चुम्बन, छिड़ती
मधुप की तान निराली।
 
मुरली मुखरित होती थी
मुकुलों के अधर बिहँसते
मकरन्द भार से दब कर
श्रवणों में स्वर जा बसते।
 
परिरम्भ कुम्भ की मदिरा
निश्वास मलय के झोंके
मुख चन्द्र चाँदनी जल से
मैं उठता था मुँह धोके।
 
थक जाती थी सुख रजनी
मुख चन्द्र हृदय में होता
श्रम सीकर सदृश नखत से
अम्बर पट भीगा होता।
 
सोयेगी कभी न वैसी
फिर मिलन कुंज में मेरे
चाँदनी शिथिल अलसायी
सुख के सपनों से तेरे।
 
लहरों में प्यास भरी है
है भँवर पात्र भी खाली
मानस का सब रस पी कर
लुढ़का दी तुमने प्याली।
 
किंजल्क जाल हैं बिखरे
उड़ता पराग हैं रूखा
हैं स्नेह सरोज हमारा
विकसा, मानस में सूखा।
 
छिप गयी कहाँ छू कर वे
मलयज की मृदु हिलोरें
क्यों घूम गयी हैं आ कर
करुणा कटाक्ष की कोरें।
 
विस्मृति हैं, मादकता हैं
मूचर्छना भरी हैं मन में
कल्पना रही, सपना था
मुरली बजती निर्जन में।