लेखक: [[{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=जयशंकर प्रसाद]]}}[[Category:कविताएँ]]{{KKPageNavigation[[Category: |पीछे=आँसू / जयशंकर प्रसाद]]/ पृष्ठ ३|आगे=आँसू / जयशंकर प्रसाद / पृष्ठ ५~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ '''इस रचना का मुखपृष्ठ: [[|सारणी=आँसू / जयशंकर प्रसाद ]]'''}}{{KKCatKavita}}<poem>यह पारावार तरल हो<br />फेनिल हो गरल उगलता<br />मथ जाला डाला किस तृष्णा से<br />तल में बड़वानल जलता।<br /><br /> निश्वास मलय में मिलकर<br />छाया पथ छू आयेगा<br />अन्तिम किरणें बिखराकर<br />हिमकर भी छिप जायेगा।<br /><br /> चमकूँगा धूल कणों में<br />सौरभ हो उड़ जाऊँगा<br />पाऊँगा कहीं तुम्हें तो<br />ग्रहपथ मे टकराऊँगा।<br /><br /> इस यान्त्रिक जीवन में क्या<br />ऐसी थी कोई क्षमता<br />जगती थी ज्योति भरी-सी।<br />तेरी सजीवता ममता।<br /><br /> हैं चन्द्र हृदय में बैठा<br />उस शीतल किरण सहारे<br />सौन्दर्य सुधा बलिहारी<br />चुगता चकोर अंगारे।<br /><br /> बलने का सम्बल लेकर <br /> दीपक पतंग से मिलता<br />जलने की दीन दशा में<br />वह फूल सदृश हो खिलता!<br /><br /> इस गगन यूथिका वन में<br />तारे जूही से खिलते<br />सित शतदल से शशि तुम क्यों<br />उनमे जाकर हो मिलते?<br /><br /> मत कहो कि यही सफलता<br />कलियों के लघु जीवन की<br />मकरंद भरी खिल जायें<br />तोड़ी जाये बेमन की।<br /><br /> यदि दो घड़ियों का जीवन<br />कोमल वृन्तों में बीते<br />कुछ हानि तुम्हारी हैं है क्या<br />चुपचाप चू पड़े जीते!<br /><br /> सब समुन सुमन मनोरथ अंजलि<br />बिखरा दी इन चरणों में<br />कुचलो न कीट-सा, इनके<br />कुछ हैं मकरन्द कणों में।<br /><br /> निर्मोह काल के काले-<br />पट पर कुछ अस्फुट रेखा<br />सब लिखी पड़ी रह जाती <br /> सुख -दुख मय जीवन रेखा।<br /><br /> दुख -सुख में उठता गिरता<br />संसार तिरोहित होगा<br />मुड़कर न कभी देखेगा<br />किसका हित अनहित होगा।<br /><br /> मानस जीवन वेदी पर<br />परिणय हो विरह मिलन का <br /> दुख -सुख दोनों नाचेंगे<br />हैं खेल आँख का मन का।<br /><br /> इतना सुख ले पल भर में<br />जीवन के अन्तस्तल से<br />तुम खिसक गये धीरे-से<br />रोते अब प्राण विकल से।<br /><br /> क्यों छलक रहा दुख मेरा<br />ऊषा की मृदु पलकों में<br />हाँ, उलझ रहा सुख मेरा<br />सन्ध्या की घन अलकों में।<br /><br /> लिपटे सोते थे मन में<br />सुख -दुख दोनों ही ऐसे<br />चन्द्रिका अँधेरी मिलती<br />मालती कुंज में जैसे।<br /><br /> अवकाश असीम सुखों से<br />आकाश तरंग बनाता<br />हँसता-सा छायापथ में<br />नक्षत्र समाज दिखाता।<br /><br /> नीचे विपुला धरणी हैं<br />दुख भार वहन-सी करती<br />अपने खारे आँसे आँसू से<br />करुणा सागर को भरती।<br /><br /> धरणी दुख माँग रही हैं<br />आकाश छीनता सुख को<br />अपने को देकर उनको<br />हूँ देख रहा उस मुख को।<br /><br /> इतना सुख जो न समाता<br />अन्तरिक्ष में, जल थल में<br />उनकी मुट्ठी में बन्दी<br />था आश्वासन के छल में।<br /><br /> दुक दुख क्या था उनको, मेरा<br />जो सुख लेकर यों भागे<br />सोते में चुम्बन लेकर<br />जब रोम तनिक-सा जागे।<br /><br /> सुख मान लिया करता था<br />जिसका दुख था जीवन में<br />जीवन में मृत्यु बसी हैं<br />जैसे बिजली हो घन में।<br /><br /> उनका सुख नाच उठा हैं<br />है यह दुख द्रुम दल हिलने से<br />ऋंगार चमकता उनका<br />मेरी करुणा मिलने से।<br /><br /> हो उदासीन दोनों से <br /> दुख -सुख से मेल कराये<br />ममता की हानि उठाकर<br />दो रुठे रूठे हुए मनाये।<br /><br /> चढ़ जाय अनन्त गगन पर<br />वेदना जलद की माला<br />रवि तीव्र ताप न जलाये<br />हिमकर को हो न उजाला।<br /><br /> नचती है नियति नटी-सी<br />कुन्दककन्दुक-क्रीड़ा-सी करती<br />इस व्यथित विश्व आँगन में<br />अपना अतृप्त मन भरती।<br /><br /> सन्ध्या की मिलन प्रतिक्षा <br />प्रतीक्षा कह चलती कुछ मनमानी<br />ऊषा की रक्त निराशा<br />कर देती अन्त कहानी।<br /><br /> "विभ्रम मदिरा से उठकर<br />आओ तम मय अन्तर में<br />पाओगे कुछ न,टटोलो<br />अपने बिन सूने घर में।<br /><br /> इस शिथिल आह से खिंचकर<br />तुम आओगे-आओगे<br />इस बढ़ी व्यथा को मेरी<br />रोओगे अपनाओगे।"<br /><br /> वेदना विकल फिर आई<br />मेरी चौदहो भुवन में<br />सुख कहीं न दिया दिखाई<br />विश्राम कहाँ जीवन में!<br /><br /> उच्छ्वास और आँसू में<br />विश्राम थका सोता हैं<br />है रोई आँखों में निद्रा<br />बनकर सपना होता हैं।<br />है। <br /> निशि, सो जावें जब उर में<br />ये हृदय व्यथा आभारी<br />उनका उन्माद सुनहला<br />सहला देना सुखकारी।<br /><br /> तुम स्पर्श हीन अनुभव-सी<br />नन्दन तमाल के तल से<br />जग छा दो श्याम-लता-सी<br />तन्द्रा पल्लव विह्वल से।<br /><br /poem>