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"बापू के प्रति / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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मानवी-कला के सूत्रधार!
 
मानवी-कला के सूत्रधार!
 
हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।
 
हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।
 
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::जड़वाद जर्जरित जग में तुम
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::अवतरित हुए आत्मा महान,
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::यन्त्राभिभूत जग में करने
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::मानव-जीवन का परित्राण;
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::बहु छाया-बिम्बों में खोया
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::पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान,
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::फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में
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::फूँकने सत्य से अमर प्राण!
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संसार छोड़ कर ग्रहण किया
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नर-जीवन का परमार्थ-सार,
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अपवाद बने, मानवता के
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ध्रुव नियमों का करने प्रचार;
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हो सार्वजनिकता जयी, अजित!
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तुमने निजत्व निज दिया हार,
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लौकिकता को जीवित रखने
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तुम हुए अलौकिक, हे उदार!
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::मंगल-शशि-लोलुप मानव थे
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::विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक,
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::तुम केन्द्र खोजने आये तब
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::सब में व्यापक, गत राग-शोक;
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::पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित
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::उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक,
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::जीवन-इच्छा को आत्मा के
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::वश में रख, शासित किए लोक।
  
  
 
'''रचनाकाल: मई’१९३५'''
 
'''रचनाकाल: मई’१९३५'''
 
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13:54, 21 दिसम्बर 2009 का अवतरण

तुम मांस-हीन, तुम रक्त-हीन,
हे अस्थि-शेष! तुम अस्थि-हीन,
तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल,
हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!
तुम पूर्ण इकाई जीवन की,
जिसमें असार भव-शून्य लीन;
आधार अमर, होगी जिसपर
भावी की संस्कृति समासीन!
तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि,--
निर्मित जिनसे नवयुग का तन,
तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग
है विश्व-भोग का वर साधन।
इस भस्म-काम तन की रज से
जग पूर्ण-काम नव जग-जीवन
बीनेगा सत्य-अहिंसा के
ताने-बानों से मानवपन!
सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम,
धुन तुमने कात प्रकाश-सूत,
हे नग्न! नग्न-पशुता ढँकदी
बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत।
जग पीड़ित छूतों से प्रभूत,
छू अमित स्पर्श से, हे अछूत!
तुमने पावन कर, मुक्त किये
मृत संस्कृतियों के विकृत भूत!
सुख-भोग खोजने आते सब,
आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन,
तुम आत्मा के, मन के मनोज!
जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर
चेतना, अहिंसा, नम्र-ओज,
पशुता का पंकज बना दिया
तुमने मानवता का सरोज!
पशु-बल की कारा से जग को
दिखलाई आत्मा की विमुक्ति,
विद्वेष, घृणा से लड़ने को
सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति;
वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थ
तुमने विचार-परिणीत उक्ति,
विश्वानुरक्त हे अनासक्त!
सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति!
सहयोग सिखा शासित-जन को
शासन का दुर्वह हरा भार,
होकर निरस्त्र, सत्याग्रह से
रोका मिथ्या का बल-प्रहार:
बहु भेद-विग्रहों में खोई
ली जीर्ण जाति क्षय से उबार,
तुमने प्रकाश को कह प्रकाश,
औ अन्धकार को अन्धकार।
उर के चरखे में कात सूक्ष्म
युग-युग का विषय-जनित विषाद,
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।
रँग-रँग खद्दर के सूत्रों में
नव-जीवन-आशा, स्पृहा, ह्लाद,
मानवी-कला के सूत्रधार!
हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।
जड़वाद जर्जरित जग में तुम
अवतरित हुए आत्मा महान,
यन्त्राभिभूत जग में करने
मानव-जीवन का परित्राण;
बहु छाया-बिम्बों में खोया
पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान,
फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में
फूँकने सत्य से अमर प्राण!
संसार छोड़ कर ग्रहण किया
नर-जीवन का परमार्थ-सार,
अपवाद बने, मानवता के
ध्रुव नियमों का करने प्रचार;
हो सार्वजनिकता जयी, अजित!
तुमने निजत्व निज दिया हार,
लौकिकता को जीवित रखने
तुम हुए अलौकिक, हे उदार!
मंगल-शशि-लोलुप मानव थे
विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक,
तुम केन्द्र खोजने आये तब
सब में व्यापक, गत राग-शोक;
पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित
उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक,
जीवन-इच्छा को आत्मा के
वश में रख, शासित किए लोक।


रचनाकाल: मई’१९३५