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"गा कोकिल, बरसा पावक कण / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर

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::::व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष रण,
 
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::::झरें, मरें विस्मृति में तत्क्षण!
 
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गा, कोकिल, गा,--कर मत चिन्तन!
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गा, कोकिल, गा,कर मत चिन्तन!
 
::नवल रुधिर से भर पल्लव-तन,
 
::नवल रुधिर से भर पल्लव-तन,
 
::नवल स्नेह-सौरभ से यौवन,
 
::नवल स्नेह-सौरभ से यौवन,

17:22, 21 दिसम्बर 2009 का अवतरण

गा, कोकिल, बरसा पावक-कण!
नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण-पुरातन,
ध्वंस-भ्रंस जग के जड़ बन्धन!
पावक-पग धर आवे नूतन,
हो पल्लवित नवल मानवपन!

गा, कोकिल, भर स्वर में कम्पन!
झरें जाति-कुल-वर्ण-पर्ण घन,
अन्ध-नीड़-से रूढ़ि-रीति छन,
व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष रण,
झरें, मरें विस्मृति में तत्क्षण!
गा, कोकिल, गा,कर मत चिन्तन!
नवल रुधिर से भर पल्लव-तन,
नवल स्नेह-सौरभ से यौवन,
कर मंजरित नव्य जग-जीवन,
गूँज उठें पी-पी मधु सब-जन!

गा, कोकिल, नव गान कर सृजन!
रच मानव के हित नूतन मन,
:

रचनाकाल: मई’१९३५