"खोलो, मुख से घूँघट / सुमित्रानंदन पंत" के अवतरणों में अंतर
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क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन, | क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन, | ||
अथवा भीतर जीवन-कम्पन? | अथवा भीतर जीवन-कम्पन? | ||
+ | ::कल्पना मात्र मृदु देह-लता, | ||
+ | ::पा ऊर्ध्व ब्रह्म, माया विनता! | ||
+ | ::है स्पृश्य, स्पर्श का नहीं पता, | ||
+ | ::है दृश्य, दृष्टि पर सके बता! | ||
+ | पट पर पट केवल तम अपार, | ||
+ | पट पर पट खुले, न मिला पार! | ||
+ | सखि, हटा अपरिचय-अंधकार | ||
+ | खोलो रहस्य के मर्म द्वार! | ||
+ | ::मैं हार गया तह छील-छील, | ||
+ | ::आँखों से प्रिय छबि लील-लील, | ||
+ | ::मैं हूँ या तुम? यह कैसा छ्ल! | ||
+ | ::या हम दोनों, दोनों के बल? | ||
+ | तुम में कवि का मन गया समा, | ||
+ | तुम कवि के मन की हो सुषमा; | ||
+ | हम दो भी हैं या नित्य एक? | ||
+ | तब कोई किसको सके देख? | ||
+ | ::ओ मौन-चिरन्तन, तम-प्रकाश, | ||
+ | ::चिर अवचनीय, आश्चर्य-पाश! | ||
+ | ::तुम अतल गर्त, अविगत, अकूल, | ||
+ | ::फैली अनन्त में बिना मूल! | ||
+ | अज्ञेय गुह्य अग-जग छाई, | ||
+ | माया, मोहिनि, सँग-सँग आई! | ||
+ | तुम कुहुकिनि, जग की मोह-निशा, | ||
+ | मैं रहूँ सत्य, तुम रहो मृषा! | ||
− | + | '''रचनाकाल: अप्रैल’१९३६''' | |
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19:40, 22 दिसम्बर 2009 का अवतरण
खोलो, मुख से घूँघट खोलो,
हे चिर अवगुंठनमयि, बोलो!
क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन,
अथवा भीतर जीवन-कम्पन?
कल्पना मात्र मृदु देह-लता,
पा ऊर्ध्व ब्रह्म, माया विनता!
है स्पृश्य, स्पर्श का नहीं पता,
है दृश्य, दृष्टि पर सके बता!
पट पर पट केवल तम अपार,
पट पर पट खुले, न मिला पार!
सखि, हटा अपरिचय-अंधकार
खोलो रहस्य के मर्म द्वार!
मैं हार गया तह छील-छील,
आँखों से प्रिय छबि लील-लील,
मैं हूँ या तुम? यह कैसा छ्ल!
या हम दोनों, दोनों के बल?
तुम में कवि का मन गया समा,
तुम कवि के मन की हो सुषमा;
हम दो भी हैं या नित्य एक?
तब कोई किसको सके देख?
ओ मौन-चिरन्तन, तम-प्रकाश,
चिर अवचनीय, आश्चर्य-पाश!
तुम अतल गर्त, अविगत, अकूल,
फैली अनन्त में बिना मूल!
अज्ञेय गुह्य अग-जग छाई,
माया, मोहिनि, सँग-सँग आई!
तुम कुहुकिनि, जग की मोह-निशा,
मैं रहूँ सत्य, तुम रहो मृषा!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३६